Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
पूर्वक कहा जा रहा चला आया है। संयमो की चौथी भोजन वृत्ति का नाम भ्रामरी यों पडा है कि भौरा जैसे पुष्पकलिकाओं को कुछ भी बाधा नहीं देकर उनमें से मकरंद ले लेता है उसी प्रकार दाता जनों को बाधा नहीं पहुंचा कर चतुर मुनि भौरे के समान आहार करता है इस कारण इस भिक्षावृत्ति की मरआहार या भ्रामरी ऐसी भी जैनसिद्धान्त में परिभाषा की गई है। भ्रमर किसी भी मञ्जरी को यत्किञ्चित् क्लेश नहीं पहुंचाता है
और अनेक पुष्पों से पराग या रस को यथोचित स्वरूप ले लेता है। मुनि का भी यही रूपक है। पांचवे भिक्षाभोजन श्वनपूरण का तात्पर्य यह है कि जिस किसी भी कूडा, कचरा, मिट्टी, कंव ढ, पत्थर आदि प्रकार करके जैसे गड्ढे को पूर दिया जाता है, उसी प्रकार अनगार मुनि भी अपने पेटरूप गड्ढे को स्वादसहित या स्वादरहित कैसे भी आहार करके भरपूर व र लेता है। इस कारण प्रकृतिप्रत्ययों के अर्थ अनुसार श्वभ्रपूरण इस प्रकार संज्ञा कही जा रही है। शब्द की निरुक्ति कर यही अर्थ निकाला गया है ।
प्रतिष्ठापनशुद्धिपरः संयतः नखरोमसिंघाणकनिष्ठीवनशुक्रोच्चारप्रस्रवणशोधने देहपरित्यागे च विदितदेशकालो जन्नपरोधमन्तरेण प्रयतते ।
भिक्षाशुद्धि का विवरण कर अब ग्रन्थकार छठी प्रतिष्ठापना शुद्धि को कहते हैं कि प्रतिठापना समिति को शुद्ध बनाने में तत्पर हो रहा संयमी मुनि देश काल को व्यवस्था को जानता हुआ अपने, नख, केश, नासिकामल, थूक, वीर्य, मल, मूत्र, पसीना आदि को शुद्ध स्थल पर क्षेपने में और जीवित या मत, देह के, धरने या परित्यागने में प्राणियों को बाधा या उनके स्वतन्त्र विचरण में विघ्न नहीं होय इस ढंग से प्रयत्न करता हैं। राजकीय नियम अनुसार जहाँ मल, मूत्र, क्षेपण का निषेध है लौकिक स्त्री, बालक, अथवा पशुपक्षियों के जो बैठने, सोने, आने, जाने के स्थान हैं वहां मुनि को मल, मूत्र, नहीं क्षेपना चाहिये। अपनी देह को भी योग्य स्थान पर धरे। सब से बड़ी बात यह है कि जीवों को बाधा नहीं पहुंचे, किस देश में, किस काल में कहां कहां जीव उपजते हैं कहां विचरते हैं यह मुनि को परिज्ञान रहना चाहिये, तभी प्रतिष्ठापना में शुद्धि आ सकेगी।
संयतेन शयनासनशुद्धिपरेण स्त्रीवधिकचौरपानशौंडशाकुनिकादिपापजनवासाः वाद्याः (वाः) श्रृंगारविकारभूषणोज्वलवेशवेश्याक्रीड़ाभिरामगीतनृत्यवादित्राकुलशालादयः परिहर्तव्याः । अकृत्रिमा गिरिगुहातरुकोट रादयः कृत्रिमाश्च शून्यागारादयो मुक्तमोचितावासाः अनात्मोद्देशनिर्वतिताः निरारम्भाः सेव्याः ।
सातवी सोने और बैठने की शयनासनशुद्धि में तत्पर हो रहे संयमी करके