Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
( १५३
ग्रहण कर लिये गये शरीरादि में " यह मेरा है " इस प्रकार के अभिप्रायों का निवारण कर देना आकिञ्चन्य धर्म है । अनुभव कर ली जा चुको स्त्री का स्वरण करना कि वह अनेक कला और गुणों से परिपूर्ण थी अथवा स्त्रियों की कथा को सुनना, वाचना, रतिप्रिय स्त्रियों के संग में रहकर सोना, बैठना, स्त्रियों के सुन्दर अंगों का देखना, पौष्टिक पदार्थ खाना, शारीरिक संस्कार आदि का परित्याग करने से परिपूर्णं ब्रह्मचर्यं धर्म होता है अथवा धर्म को स्वतन्त्रतया पालने के लिये आप ही गुरु हो रहे परम ब्रह्म शुद्ध आत्मा में चर्या रखना यह भी ब्रह्मचर्य है । ऊपर किसी में किसी का अन्तर्भाव हो जाने की जो शंकायें की गयी हैं उन सभी का परिहार यों कर दिया जाय कि समिति, तप, आदि में अन्तर्भूत हो चुके भी कतिपय धर्मों का यहां उपदेश तो भी अन्वर्थसंज्ञापने की प्रतिपत्ति हो जाना अन्यथा अनुपपन्न है ऐसी अर्थ की से पुनरुत्रतपना नहीं हैं । भावार्थ - धारणा सामर्थ्यात् धर्म : यह धर्मशब्द का प्रत्यय से अर्थ निकल आता है । उन धर्मों की संवर के धारने में सामर्थ्य है अतः धर्म संज्ञा अन्वर्थ हैं । दूसरी बात यह भी है कि सात प्रकार प्रतिक्रमणों के समान उन दश प्रकार के धर्मों की भावना भी गुप्ति आदि के पालने में तत्पर हैं, अतः उनमें अन्तर्भूत हो चुकों का भी प्रयोजनवश पृथक् उपदेश किया जाता है । सात प्रकार का प्रतिक्रमण तो यों हैं कि १ ईर्यापथ संबन्धी २ रात सम्बन्धी ३ दिनसम्बन्धी ४ पखवाडा सम्बन्धी ५ चातुर्मास में होनेवाला ६ वार्षिक ७ उत्तमस्थान सम्बन्धी या उत्तम अर्थ सम्बन्धी, यों सात प्रकार का वह प्रतिक्रमण अर्थात् मेरे खोटे दोष मिथ्या हो जाय ऐसा अंतरंग से अभिप्राय प्रकट करना लक्षित किया जाता है। यह जैसे गुप्ति, समिति, आदि को प्रतिष्ठित करने के लिये भावित किया जाता है उसी प्रकार उत्तमक्षमा आदिक दश प्रकार के धर्म भी गुप्ति आदि में प्रतिष्ठित बने रहने के लिये भावे जाते हैं । तिस कारण से उन गुप्ति आदिकों में गर्भित हो चुके भी कतिचित् धर्मों का यहां पृथक् निरूपण करना न्यायोचित है ।
नवमोऽध्यायः
यद्यपि गुप्ति, कर दिया है
गति हो जाने प्रकृति और
दशों धर्मों में उत्तम विशेषण तो देखे जा रहे लौकिक प्रयोजनों का सर्वथा परिहार करने के लिये है अर्थात् लौकिक प्रयोजन को साधने के लिये यदि क्षमा या मार्दव आदि धारे जायेंगे तो वे उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव आदि नहीं होंगे, उनसे कर्मों का संवर नहीं हो सकेगा। सभी धर्मों को पालते हुये स्व में गुण और अपने प्रतिपक्ष में दोष की भावना भाई जाय जैसे कि ब्रह्मचर्य का पालन करना इह लोक और परलोक में सुखसंपादक । ब्रह्मचारी की सभी लोग प्रतिष्ठा करते हैं । उसका प्रतिपक्ष हो रहा व्यभिचार करना