Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
(११९
इन जीवों की बाधा का परिहार करना यही समीचीन ईर्या समिति का अर्थ है ।
हितमितासंदिग्धाभिधानं भाषासमितिः। अन्नादावुद्गमादिदोषवर्जनमेषणासमितिः, उद्गमादयो हि दोषाः-उद्गमोत्पादनैषरणसंयोजनप्रमाणांगारकारणधूपप्रत्ययास्तेषां नवभिरपि कोटिभिर्वर्जनमेषरणासमितिरित्यर्थः । धर्मोपकरणानां ग्रहणविसर्जनं प्रति यतनमादाननिक्षेपरणासमितिः । जीवाविरोधेनांगमलनिहरणं समुत्सर्गमितिः ।
स्व और पर का हित करनेवाले तथा परिमित एवं सन्देहरहित ऐसे वचन बोलना भाषासमिति है। अन्न, जल, आदि में उद्गम, उत्पादन, आदि दोषों का वर्जना एषणासमिति है। उद्गम आदि दोष तो उद्गम, उत्पादन, एषणा, संयोजन, प्रमाण, अंगार, कारण, धूमप्रत्यय ये हैं। उन उद्गम आदि दोषों का मन, वचन, काय सम्बन्धी कृतकारित, अनुमोदना स्वरूप, नव भी कोटियों (भंगों) करके त्याग करना एषणा समिति का अर्थ है । धर्म पालने में उपयोगी हो रहे पिच्छ, कमण्डलु पुस्तक, आदि उपकरणों के ग्रहण करने और परित्याग (धरने) के प्रति यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना आदाननिक्षे. पण समिति है । त्रस, स्थावर जीवों को बाधा नहीं होने करके शारीरिक मल और शरीर का स्थापन करना भली उत्सर्गसमिति समझनी चाहिये ।
वाक्कायगुप्तिरियमपीति चेन्न, तत्र कालविशेषे सनिग्रहोपपत्तेः । ननु च पात्राभावात् पारिणपुटाहाराणां संवराभाव इति चेन्न पात्रग्रहणात्परिग्रहदोषात् दैन्यप्रसंगाच्च । अन्नबत्तत्प्रसंग इति चेन्न, तेन विनाभावात् चिरकालं तपश्चरणस्य । नैवं तस्य पात्रादि विनाभाव इति न परमर्षिभिः पात्रादि ग्राह्य प्रासुकान्नग्रहणवत्। कुतः समितीनां संवरत्वमित्याह- यहाँ कोई आक्षेप करता है कि यह समिति भी वचनगुप्ति और कायगुप्ति है भाषासमिति वचनगुप्ति हो सकती है और ईर्या, एषणा ये सब कायगुप्ति हैं।-आचार्य महाराज कहते हैं कि यह आक्षेप तो ठीक नहीं है। क्योंकि उस गुप्तिका पालन करने पर विशेष काल में सम्पूर्ण योगों का निग्रह करना सिद्ध हो रहा है। गुप्तिपालन करना अतीव कठिन पुरुषार्थसाध्य कार्य है । अतः थोडे से काल तक सम्पूर्ण योगों का निग्रह करते हुये गुप्ति पल सकती है। हां, उस गुप्ति को पालने में असमर्थ हो रहे संयमी की चलने, बोलने आदि में आचारशास्त्र अनुसार प्रवृत्ति होना समिति है। यहां और भी एक शंका उठाई जा रही है कि आप जैनों के यहां मुनिमहाराज को पात्र रखना निषिद्ध कहा है संयमी हाथरूप दोनेमें ही आहार करते हैं । ऐसी दशामें हाथसे गिर गये आहार को निमित्त पाकर प्राणियों