Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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नवमोऽध्यायः
( १४१
तीनों गुप्तियां तो निवृत्तिरूप हैं भले हो शुद्ध आत्मा का अनुभव कर रहे गुप्तिधारी संयमी को अभ्यंतर पुरुषार्थं द्वारा अन्तरात्मा में अनेक प्रवृत्तियां करनी पड़ें जो कि अत्यावश्यक हैं । किन्तु गुप्तियों को पाल रहे मुनि के बहिरंग में मन, वचन, काय, की कोई प्रवृत्ति नहीं होती है । जंसी कि समितिधारी की शुभ कार्यों में प्रवृत्ति हो रही है समिति वाले की अपेक्षा गुप्तिवाले संयमी की अन्तरात्मा में प्रवृत्तियां अधिक है, जो कि स्वसंवेद्य हैं। तभी तो बहिरंग कार्यों में योगों की परिपूर्ण निवृत्ति हो रही है । बात यह है कि सुख निद्रा ले रहे जो की वहिरंग प्रवृत्तियां बहुभाग रुक गयो हैं । किन्तु अन्तरंग में पाचन नीरोग होना धातु, उपधातु मल, सूत्र बनाना आदि क्रियायें जागृत दशा से अत्यधिक हो रही हैं । महारोगी जीव बहिरंग में मूर्च्छित ( बेहोश ) हो जाता है, कोई क्रिया नहीं करता दीखता है । किन्तु अंतरंग में शरोरप्रकृति अनुसार बडी क्रियायें कर रहा है, तभी तो शरीर. रक्तशोष ए, कफवृद्धि, आदि कार्य हो जाते हैं, क्षयरोगवाले की हड्डियां पीली पड जाती हैं, घुन जाती हैं, यह क्या छोटा कार्य है ? संग्रहणोवाले को शरीर की धातुओं, उपधातुओं, कोमल बनाना पडता है यह थोड़ा कार्य नहीं हैं । कोई नीरोग देखें घोर प्रयत्न से भी अपनी हड्डियों में हजारों लाखों छेद कर ले, तब तो यह सुलभ कार्य माना जाय । आचार्य कहने हैं कि ये पांच ईर्ष्या, भाषा आदिक समितियां तो समीचीन प्रवृत्तियां मानी गयीं हैं। गुरुपरंपरा से ऐसा ही स्मरण किया जा रहा चला आ रहा हैं । असंयम परिणामों से उत्पन्न हो रहे आस्रव का इन पांच समितियों करके निरोध हो जाता है ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि उन समितियों को उस आस्त्रव का विपक्षपना निर्णीत है ( हेतु ) इस कारण समिति पालने में समोचीन प्रवृत्ति कर रहे संयमो यतियों के यथायोग्य एकदेश करके संवर हो जाता है ( निगमन) । अर्थात् व्यवहार में भी देखा गया है कि जो विद्यार्थी या भला पुरुष दूसरे व्यापार, कृषि, आदि कार्यों से व्युपरत रहते हैं वे अध्ययन, पूजन, ध्यान आदि शुभ प्रवृत्तियों को करते हुये उन व्यापार आदि से उपजनेवाली आकुलताओं का संवरण कर लेते हैं । अथ धर्मप्रतिपादनार्थ माहः -
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अब सूत्रकार महाराज समितियों का निरूपण कर चुकने पर विनोत शिष्यों को संवर के तीसरे हेतु माने गये धर्म की प्रतिपत्ति कराने के लिये अगिले सूत्र को स्पष्ट कह रहे हैं ।
उत्तम क्षमा मार्दवाजव शौचसत्य संयमतपस्त्यागाकिंचन्यह्मचर्याणि धर्मः ||६||