Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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कर्मों के आगमन में निमित्तकारण हो रहे योगविशेष, इन्द्रिय, कषाय, दु:ख, शोक आदि का प्रादुर्भाव नहीं होना आस्रवनिरोध है । उस आस्रवनिरोध के हो जाने पर उस आस्रव को पूर्ववर्ती कारण मानकर हो रहे कर्मों के ग्रहण का अभाव हो जाना संवय पदार्थ है । यहाँ कोई शिष्य शंका उठाता है कि मूल सूत्र में आस्रवनिरोध को संवर कहा गया है अब टीका में आस्रवनिरोध हो जाने पर कर्मग्रहण के गया है, प्रतीत होता है कि 'आस्रवनिरोधात् संवरः यो सूत्र समझ लिया गया है। जब कि आस्रव का निरोध है तो सूत्रकार को तिसी प्रकार आस्रवनिरोधे सति संवरः यों सूत्र पढना चाहिये जिससे कि अभिमत अर्थ की सिद्धि हो जाय, भ्रम के उत्पादक पदों का उच्चारण क्यों किया जा रहा है ? ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना । क्योंकि अनादि आम्नाय अनुसार संवर का निर्देश इसी प्रकार होता चला आ रहा है यहां कार्य में कारणपने का उपचार किया गया हैं जैसे कि " अन्नं वं प्रारणाः " यहाँ अन्न के कार्य हो रहे प्राणों में उद्देश्य रूप करके अन्नपन का उपचार है, तिसी प्रकार आस्त्रवनिरोध का कार्य हो रहे संवर में आस्रवनिरोध का व्यवहार कर लिया गया है अथवा एक बात यों है कि यहां सूत्र में निरोध शब्द को नि उपसर्ग पूर्वक " रुधिर आवरणे " धातु से कारण
अभाव को संवर बखाना या " आस्रवनिरोधे संवरः होनेपर संवर होना अभीष्ट अथवा आस्रवनिरोधात्संवरः
धञ् प्रत्यय कर साधा जाय, इस आत्मीय भाव करके कर्म रोके जाते हैं यों आस्रव निरोध करनेवाला कारण संवर है यह सूत्र द्वारा कहा जाता है किन्तु फिर वह कर्मों के ग्रहण करने का अभाव हो जाना संवर नहीं हैं जो कि भाव में घञ् प्रत्यय करने पर अर्थ निकलता था यों संवर शब्द का भी कारण में अप् प्रत्यय कर साधन किया जाय, जिससे कि सामानाधिकरण्य बन जाय, जैसे कि " सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं " यहां बन जाता है । अथवा दूसरे ढंग से यों भी आम्नाय के उक्त लक्षगवाक्य को घटित कर लिया जाय कि " आस्रवनिरोधः " यह स्वतन्त्र वाक्य रक्खो जाय और " संवर: " यह दूसरा सूत्र स्वतन्त्र समझा जाय । यों दोनों जुडे हुये पदों के योग का विभाग कर दो टुकडे कर लिये जाय तब तो वडा अच्छा अर्थ यह हो गया कि हित को चाहनेवाले जीव करके आस्रव का निरोध करना चाहिये, यह पहिले वाक्य का अर्थ हुआ । सूत्र अपने अर्थ को रचने के लिये यहां-वहां से उचित पदों को खींच लेते हैं । अत्यन्त संक्षेप से सूत्रों की रचना करनेवाले गम्भीर विद्वान् सभी, क्रिया, कारक, पदों को कहां तक बोलते रहें । अतः " हितार्थिना कर्तव्यः यह पद सूत्र से शेष बच गया समझ लेना चाहिये । उस आस्रवनिरोध से क्या प्रयोजन सधेगा ? ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तने पर भट सूत्रकार दूसरा वाक्य यों बोल देते हैं कि " संवर" कर्मों का
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अष्टमोऽध्यायः
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