Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
( १२३
नहि निरोधो निरूपितो अभावस्तस्य भावान्तरस्वभावत्वसमर्थनात्, तेनात्मैव निरुद्धास्रवः संवृतस्वभावभृत् संवरः सिद्धः सर्वथाविरोधाद्भावाभावाभ्यां भवतोऽभवतश्च ।
जैन सिद्धान्त में निरोध पदार्थ कोई तुच्छ या निरुपाख्य पदार्थ नहीं कहा गया जैसा कि कार्यता, कारणता, आधारता, आधेयता आदि धर्मों से रीते तुच्छ अभावपदार्थ को वैशेषिकों ने इष्ट किया है जैन या मीमांसक ऐसे तुच्छ अभाव को नहीं मानते हैं । हम जैनों के यहाँ अभाव को अन्य भावों स्वरूप हो जाने का दृढ समर्थन किया गया है, जैसे कि रीवा भूतल ही घटाभाव है, घट का फूटकर ठीकरा हो जाना ही घटध्वंस है उसी प्रकार करणसाधन व्युत्पत्ति अनुसार गुप्ति, समिति आदिक आत्मीय परिणाम ही आस्रवनिरोध कहे जाते हैं तिसकारण जिसके आस्रव रुक चुके हैं ऐसा गुप्ति, समितिवाला आत्मा ही संवर पा चुके स्वरूप को धार लेता है, यों मुक्ति से संदर तत्त्व सिद्ध हो जाता है । भावस्वरूप आस्रवनिरोध का सद्भाव हो जाने से संवर के हो जाने का और आस्रवनिरोध का अभाव हो जाने से संवर के नहीं होने का सभी प्रकारों से कोई विरोध नहीं है ।
बंधस्यास्रवकारणत्ववत् बंधस्यैव निरोधः संवर इति कश्चित्, तदयुक्तमित्याहः -
यहाँ कोई पण्डित आक्षेप करता है कि जिस प्रकार "बन्ध आस्त्रवकारणं
( बहुव्रीहि ) बन्ध का आस्रव को कारणपना है, उसी प्रकार बंध के ही निरोध को संवर कहना चाहिये " बन्धनिरोधः संवरः " यों सूत्ररचना अच्छी जंचती है। आचार्य कहते हैं कि वह किसी पण्डित का कहना युक्तिशून्य है, इसी बात को अगली वार्तिक में कहे देते हैं ।
संवरोऽपूर्वधस्य निरोध इति भाषितं,
न युक्तमात्र सत्यप्येतद्बाधानुषंगतः ॥ ३ ॥
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" आस्रवनिरोधः संवरः " ऐसा नहीं कहकर " बंध निरोधः संवरः " यों
. सूत्र बनाकर अपूर्व कर्मबन्ध का निरोध हो जाना संवर है । इस प्रकार किसी का भाषण
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करना युक्तिपूर्ण नहीं है क्योंकि आस्रव के होने पर भी बारहमे, तेरह में गुणस्थानों में इस बंध के हो जाने की बाधा का प्रसंग आ रहा है । अर्थात् ग्यारहवे, बारहमें, तेरहमे गुणस्थानों में केवल योग द्वारा सातावेदनीयकर्म का ईर्यापथ आस्त्रव हो रहा है किन्तु बन्ध नहीं है यों बन्ध का निरोध हो जाने से बारहमें गुणस्थान में सातावेदनीय का संवर समझा जायगा जो कि इष्ट नहीं है ।, हां आस्रवनिरोध को संवर कह देने से वहां सात वेदनीय का