Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
११५ )
तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
जैसे कि अर्थ और अनर्थ दोनों में भी अर्थानुबन्धीपना विवक्षापूर्वक साध दिया है उसी के समान तीसरा और चौथा भंग यों है कि चोरी, धोका देना, असत्यभाषण, हत्या करना, जुआ खेलना, आदिक अन्यायपूर्वक आचरणों से आ गया अर्थ (धन) पीछे भविष्य में अनर्थों का करनेवाला हो जाता है व्यापारी जेलखाने में दे दिया जाता है, राजा उसका धन लूट लेता है, बीमारी में खर्च हो जाता है, चोर चुरा ले जाते हैं, आग लग जाती हैं, यों निर्धन बनाकर अनेक अनर्थों का वह धन उसको अनेक अनर्थ उत्पन्न कर देता है । तथा कतिपय अनर्थ भी अनर्थों के करने वाले हो रहे हैं । अनेक पुण्यहीन पुरुष दरिद्र कुलों में उपजे हैं धन कमाने के उनके भाव ही नहीं होते हैं, सहायक कारण ही नहीं मिलते हैं | अन्यायपूर्वक कोई कार्य कर बैठें तो निर्धन के निर्धन रह जाते हैं । उनकी आत्मा इतनी पददलित, पतित हो जाती है कि उसमें उन्नतभाव कई पीडियों तक जन्मित नहीं होते हैं । खटीक, भंकरा, सिंगी लगानेवाले, कंजरा, कुचमदा, खुरपल्टा, ये सब आजीविकाय वर्तमान में अनर्थ हैं और भविष्य में भी अनर्थों की जड हैं यों ग्रन्थकार ने निर्दोष रूप से उदाहरणों का निर्णय कर दिया है। भावार्थ- दृष्टान्त दाष्टन्तिक समरूप से घटित हो रहे हैं | पुण्यानुबन्धी पुण्य का दृष्टान्त अर्थानुबन्धी अर्थ है । और पापानुबन्धी पाप का उदाहरण तो अनर्थों को करनेवाला अनर्थ है, तथा पापानुबन्धी पुण्य का दृष्टान्त अनर्थकारी अर्थ है एवं पुण्यानुबंधी पाप का दृष्टान्त अर्थ को करने वाला अनर्थ है । स्याद्वादसिद्धान्त समुद्र महान् गहन है हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह पांचो पापों के सेवनेवाले पुरष के प्रत्येक पापक्रियाओं में न्यारे-न्यारे अतिशय हैं । कोई मनुष्य केवल हिंसा करता है, अन्य चार पापों को नहीं करता है उसकी हिंसा पहिले की व्रतरहित अवस्था की हिंसा से अन्य स्वभाव को लिये हुये है, दूसरा गृहस्थ दो पापों का त्यागी है, तीन पापों को सेवता है तीसरा मनुष्य चार पापों का त्यागी है एक को सेवता है । चौथा पांचो पापों का त्यागी है, छठा मनुष्य पहिले त्यागी था, अब पापों को सेवने लग गया है, सातवां पापों को सेव रहा है भविष्य में त्याग कर देगा इन सबके पुण्यबन्ध या पापबन्धों में अनेक विलक्षणतायें माननी चाहिये । जिस नाव ( बजड़ा ) में हजार बोरा चना लद रहा है उसमें से एक सेर चना उतार लिया जाय या अधिक रख दिया जाय तो नाव पानी में ऊंची, नीची अवश्य हो जायगी, भले ही उस सूक्ष्म अन्तर को स्थूलबुद्धिवाले विद्यार्थी नहीं समझ सकें, एक सेर तो बहुत होता है एक तोला या एक चना भी रख दिया जाय या निकाल लिया जाय तो नाव के धँस जाने और ऊथलेपन में अन्तर पड़ जायगा । देखिये, यदि एक तोले में अस्सी
L
24.