Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
उनके दुःख प्राप्त होना, ज्ञान न होना, प्रतिकूल नींद आना, रोगी रहना बुरी आकृति बन जाना, हड्डियों का जोड निकृष्ट लगना, खोटा स्वर, अपयश, नीचकुली बखाना जाना, आदिक अनुभवे जा रहे अशुभ फलों से पापकर्मों का अनुमान कर लिया जाता है । कर्मों से अतिरिक्त अन्य देखे जा रहे कारणों से उन दुःख आदिकों की उत्पत्ति मानने से व्यभिचार दोष आता है । थप्पड लगा देने से बालक सो जाता है, कोई बालक रो जाता हैं, घोडा सुखिया जाता है कोई उत्साहित हो जाता है, लज्जाशील मनुष्य अत्यधिक दुःख मानता है। इसी प्रकार एक ही कार्य से किसी को यश अन्य को महायश तीसरे को अपयश प्राप्त हो जाता है। एक ही मातापिता के कोई लडका, लडकी सुन्दर, विनीत सदा. चारी होते हैं, अन्य असुन्दर, अविनीत पापाचारी, होते हैं। आहार, पान, समान होने पर भी शरीर के अवयव, स्वर, आकृतियां अनेक प्रकार बुरी, भली बन जातो हैं । इत्यादि रूप से दृष्ट हेतुओं का व्यभिचार आता है। हाँ अदृष्ट अतीन्द्रिय कर्मों को इन दुःखादिकका अंतरंग कारण मान लेने से कोई दोष नहीं प्राप्त होता है ।
एवं संक्षेपतः कर्मबन्धो द्वेधावतिष्ठते । पुण्यपापातिरिक्तस्य तस्यात्यंतमसंभवात् ॥२॥
इस प्रकार संक्षेप से दो प्रकार का कर्मबंध युक्ति और आगम से व्यवस्थित हो रहा है। कारण कि मूल रूप से पुण्य और पाप के अतिरिक्त उसके अन्य भेदों का अत्यन्त रूप करके असंभव है। यों उक्त दोनो सूत्रों को इस वार्तिक द्वारा परार्थानुमान बनाकर साध दिया है । जैनों का कर्मसिद्धान्त अकाट्य है, सभी विद्वानों को स्वीकार कर लेने योग्य है, आगम और युक्ति तथा अनुभव जिस विषय को पुष्ट कर रहे हैं उस रहस्य को नतमस्तक होकर स्वीकार कर लेना विद्वानों का कर्तव्य होना चाहिये।
पुण्यं पुण्यानुसंधीष्टं पापं पापानुबंधि च । किंचित्त्वापानुबंधि स्यात्किंचित् पुण्यानुबन्धि च ॥३॥
जैन सिद्धान्त में पदार्थों के अनेक विचित्र स्वभाव इष्ट किये गये हैं। कोई पुणाकर्म इस प्रकार का है, जो कि वर्तमान में पुण्यस्वरूप होता हुआ भविष्य में भी पुण्य को अनुकूल बांधने वाला है। जैसे कि शुद्धभावों से पूजन करना, तीर्थक्षेत्रों की यात्रा करना, पात्रदान करना, निःस्वार्थ भावों से परोपकार करना, इन पुण्यजन्य क्रियाओं से वर्तमान