Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
(११०
ब्यालीस प्रकृतियों की पुण्य संज्ञा है । यहाँ कोई जिज्ञासु पूछता है कि किन प्रमाणों या युक्तियों से ये सद्वेद्य आदिक पुण्यकर्म सिद्ध किये जाते हैं ? बताओ। ऐसा प्रश्न उपस्थित होने पर ग्रेन्थकार उत्तरवातिकों द्वारा समाधान कहते हैं।
यस्योदयात्सुखं तत्स्यात्सद्वेद्यं देहिनां तथा। शुभमायुस्त्रिधा यस्य फलं शुभभवत्रयम् ।। १ ॥ सप्तत्रिंशद्विकल्पं तु शुभं नाम तथा फलं । उच्चर्गोत्रं शुभं प्राहुः शुभसंशब्दनार्थकम् ॥२॥ इति कार्यानुमेयं तद्विचत्वारिंशदात्मनि ।
पापासवोक्तिसामर्थ्यात्पापबंधो व्यवस्थितः ॥३॥
जिस कर्म के उदय से शरीरधारी जीवों को लौकिक सुख उपजता है वह सद्वेद्य कर्म समभा जायगा तथा तीन प्रकार आयुयें भी शुभ हैं। जिन पुण्य आयुओं का फल शुभ हो रहे तिर्यञ्च, मनुष्य, और देव इन तीन भवों की रोधनविपाकप्रद प्राप्ति हो जाना है। तथा नाम कर्म तो सैंतीस प्रकार का पुण्यरूप शुभ है जिसका कि फल वैसा ही अच्छी गति, जाति आदि रूप करके अनुभवा जा रहा है। लोक में पूजित हो रहे कुलों में जन्म होना अथवा सन्तानक्रम प्राप्त शुभ आचरणों द्वारा श्रेष्ठ बखाना जाना इस प्रयोजन को धार रहे उच्चगोत्र को आचार्य महाराज शुभकर्म कहते हैं । यों सांसारिक सुखी आत्मा में हो रहे कार्यों द्वारा अनुमान कर लेने योग्य ब्यालीस प्रकार का वह पुण्यकर्म प्रतीत कर लिया जाता है। दृश्यमान कार्यों से अदृष्ट पुण्य कर्मों का अनुमान कर लेना सुलभ हैं। परिशेष में पाप कर्मों के आस्रव का कथन करने की सामर्थ्य से पापप्रकृतियों का बन्ध हो जाना भी युक्तियों करके व्यवस्थित हो रहा है । यहां भी कार्यों से कारण का अनुमान कर लेना सुसाध्य हैं।
पापं पुनस्ततः पुण्यादन्यदित्यत्र सूत्र्यते:
फिर पापकर्म तो उस पुण्य कर्म से न्यारा है ऐसी देशना का यहां सूत्र द्वारा निरूपण किया जाता है।
अतोन्यत् पापम् ॥२६॥