Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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इन उपर्युक्त पुण्यप्रकृतियों से अन्य शेष बच रहीं सम्पूर्ण प्रकृतियां पाप हैं। अर्थात् ब्यालीस प्रकृतियां पुण्य है और ब्यासो प्रकृतियां पाप हैं । बन्ध की अपेक्षा एकसौ बीस प्रकृतियां हैं। मिश्र और सम्यक्त्व के बढ जाने से उदय को अपेक्षा एकसौ बाईस प्रकृतियां समझी जाती हैं। उत्तर भेद कर देने से सत्त्व की अपेक्षा एकसौ अड़तालीस प्रकृतियां हैं। बन्ध की अपेक्षा एकसौ बीस प्रकृतियों में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, ये चारों प्रकृ. तियां पुण्य और पाप दोनों में गिनी गयी हैं। अच्छे से अच्छे और बुरे से बुरे स्पर्श आदिक चार किन्ही किन्ही जीवों को प्रतिकूल और अनुकूल होकर अनुभूत हो रहे हैं । यों दोनों पुण्य, पाप प्रकृतियों का जोड एकसौ चौवीस हो जाता है।
___ असāद्याशुभायु मगोत्राणोत्यर्थः । कुतस्तदवसीयत इत्याहः
सूत्र में पडे हुये " अन्यत्" पद का यह अर्थ है कि असद्वेद्य, अशुभ आयु, अशुभ नाम प्रकृतियां और नीच गोत्र, ये परिशेष में पापप्रकृतियां गिनी जाती हैं अर्थात् ज्ञानावरण कर्म की पांच, दर्शनावरण की नव, मोहनीय की छब्बीस, अन्तराय की पांच, यों घाति कर्मों की पैंतालीस प्रकृतियां हुयीं, यद्यपि निद्रा और प्रचला का कार्य भी सुख नींद लेना अनुकूल अच्छा लग रहा है तथापि वह सातवेदनीय का कार्य है, निद्राओं के साथ सात वेदनीय कर्म का अविनाभाव लग रहा है वस्तुतः मूल में निद्रा अच्छी नहीं है जैसे कि शोक या पोडा से मूच्छित हो जाना शोभन नहीं लगता है । वेदनीय कर्म की एक असाता वेदनीय प्रकृति और आयुष्य कर्म में एक नरक आयुः पाप है। कारण कि जीव को नारको शरीर में ठूसे रहना इसका कार्य प्रतिकूल वेदनीय हो रहा है । नाम कर्म की नरक गति तिर्यक्गति; पहिली चार जातियां, पिछले पांच संस्थान, आदिम को छोडकर पांच संहनन, प्रशंसनीय नहीं ऐसे वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और नरक गत्यानुपूर्व्य, तिर्यक्गत्यानुपूर्व्य, उपघात, अप्रशस्तनिहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्ति, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, अयशस्कीति, ये चौतीस प्रकृतियां हैं। गोत्र कर्म में नीचमोत्र पापप्रकृति है यों ब्यासी प्रकृतियां पाप है। यहाँ कोई तर्क उठाता है कि उन प्रकृतियों का पापपना किस प्रमाण से निर्णीत किया जाता है ? बताओ। ऐसो जिज्ञासा उपस्थित होने पर ग्रन्थका वार्तिक द्वारा समाधान कहते हैं।
दुःखादिभ्योऽशुभेभ्यस्तत्फलेभ्यस्त्वनुमीयते, हेतुभ्यो दृश्यमानेभ्यस्तज्जन्मव्यभिचारतः ॥१॥