Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकारे
१०५ )
"ते" पद से कर्मों के प्रदेश ग्रहण करने चाहिये । उक्त कारिका में बोले गये ते पद का अर्थ भी वे कर्मप्रदेश हैं ।
भूयः प्रदेश नैकत्र प्रदेशे द्रव्यमीक्ष्यते । परमाणौ यथाक्ष्माभृत्कुलं नैवेति केचन ॥ ७ ॥ तेषामल्पप्रदेशस्थैर्घनैः कार्पासपिण्डकः । कान्तिकता हेतोर्भूयो देशैरसंशयम् ॥ ८ ॥
यहाँ किन्हीं का आक्षेप है कि एक प्रदेश में बहुत से प्रदेशवाला द्रव्य समा जाय ऐसा देखने में नहीं आता है जैसे कि एक परमाणु में पर्वतों का समुदाय नहीं आधार प सकता है तो असंख्यात प्रदेशी आत्मा में अनन्तानन्त कर्म कैसे ठहर सकते हैं ? इस प्रकार कोई पण्डित कह रहे हैं । अब आचार्य कहते हैं कि उन पण्डितों के यहां कहा गया हेतु तो संशयरहित व्यभिचार दोषवाला है । बहुत से प्रदेशों में फैले हुये कपासनिर्मित रुई के पिण्ड को दबाकर घना करके अल्पप्रदेशों में स्थित कर दिया जाता है अर्थात् फूली हुयी बहुत रुई की कान में दबाकर छोटी सी गांठ बना ली जाती है । अतः उतने ही प्रदेशवाले द्रव्य की उतने ही प्रदेशवाले आधार पर स्थिति होतो है इस व्याप्ति में पड़े हुये हेतु का घनी रुई से व्यभिचार आता है । प्रयोगों द्वारा बडे बडे पदार्थों को छोटे आधारों में धर दिया जाता है । पदार्थों में अवगाहशक्ति विद्यमान है। दूध में बूरा समा जाता हैं जब स्थूल पदार्थों की यह व्यवस्था है तो सूक्ष्मपदार्थ तो निराबाध होकर एक दूसरे में ठहर जाय या स्वल्पप्रदेश में स्थित हो जाय इस में कोई आश्चर्य नहीं है ।
योगविशेषादिति वचनं निमित्त निर्देशार्थं । कथमित्याहः -
सूत्र में योगविशेष से प्रदेशबन्ध होना जो कहा गया है इसका प्रयोजन तो निमित्त कारण का नाम मात्र कथन करना है । मन वचन, काय, को अवलम्ब पोकर हुये आत्मप्रदेशपरिस्पन्द स्वरूप योगविशेषसे पुद्गल खिचे हुये आ जाते हैं । वह योग प्रदेशबंध का किस प्रकार निमित्त है ऐसी जिज्ञासा उपजने पर ग्रन्थकार यों अगली आधी वार्तिक द्वारा उत्तर कह रहे हैं ।
योगः पूर्वोदितस्तस्य विशेषात् कारणात्तथा । स्थिता ते विना हेतोर्नियतावस्थितिक्षतेः ॥ ६ ॥