Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
स्थिति पच्चीस सागरोपम के तीन बटे सात भाग है, तीन इन्द्रिय वाले पर्याप्त जीव के बंध रहे ज्ञानावरणादि चार कर्मों की उत्कृष्टस्थिति पचास सागरोपम के सात भागों में तीन भाग प्रमाण हैं। चार इन्द्रियवाले पर्याप्तजीवों के बंध रहे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति तो सौ सागरोपम के सात भागों में तीन भाग प्रमाण है । अर्थात् तीन सौ बटे सात सोगरोपम है ४२६ सागर है। मनरहित असंज्ञीपंचेन्द्रिय पर्याप्त जीव के बंध रहे ज्ञानावरणादि चार कर्मों में हजार सागरोपम के तीन बटे सात भाग प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति पडेगी। संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त के तीस कोटाकोटी सागर की स्थिति सूत्र में ही कह दी है । हाँ लब्ध्यपर्याप्तक संज्ञीपंचेन्द्रिय जीव के उक्त कर्मों की उत्कृष्टस्थिति अंत: कोटाकोटी सागर प्रमाण पडेगी। करोड से ऊपर और करोडकरोडों यानी दश नील से नीचे की संख्या को अन्तःकोटाकोटी कहते हैं। अपर्याप्त हो रहे एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, और असंज्ञीपञ्चेन्द्रिय जीवों के वे ही एक, पच्चीस, पचास, सौ और हजार सागरों के तीन बटे सात भाग प्रमाण स्थितियां पड़ेगी। किन्तु कर्मों की इन उत्कृष्ट स्थितियों से एकेंद्रिय के पल्योपम के असंख्यातमे भाग और दींद्रियादि के पल्य के संख्यातमें भाग प्रमाण असंख्याते वर्ष न्यून पडेगी। इस प्रकार गुरुपरिपाटी अनुसार चले आ रहे उत्कृष्ट सर्वज्ञोक्त आगम सिद्धान्त का प्रवाह बह रहा है । गोम्मटसार में इसका स्पष्ट निरूपण है।
कुतः परा स्थितिराख्यातप्रकृतीनामित्याहः
इस सूत्र में कण्ठोक्त बखानी गयीं चार प्रकृतियों की यह तीस कोटाकोटी सागर उत्कृष्टस्थिति भला किस प्रमाण से सिद्ध समझी जाय ? बताओ। यों किसीका तर्क प्रवर्तने पर ग्रन्थ कार दो वार्तिकों द्वारा इस प्रकार समाधान कहते हैं।
आदितस्तिसृणां कर्मप्रकृतीनां परा स्थितिः । अंतरायस्य च प्रोक्ता तत्फलस्य प्रकर्षतः ॥१॥ सागरोपमकोटीनां कोट्यस्त्रिंशत्तदन्यथ ।
तदभावे प्रमाणस्याभावात्सा केन बाध्यते ॥२॥
इस सूत्र में आ लेकर तीन कर्म प्रकृतियों की और अन्तराय कर्म की तीस कोटाकोटी सागर उत्कृष्टस्थिति बहुत अच्छी कह दी गयी हैं (प्रतिज्ञा) क्योंकि अधिक से