Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
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आदि परिणामों करके नियुक्त नहीं हो जाती हैं। तीसरी बात यह भी है कि शरीर स्कन्ध को माने विना अनुभव नाम के भोग का स्थापने को कोरी परमाणुयें प्राप्त नहीं कर सकती हैं। यों परमाणुओं को भोगों का अधिष्ठान माननेपर अतिप्रसंग हो जावेगा। अर्थात् "भोगायतनं शरीरं" शरीर नामक विशिष्ट स्कन्ध ही भोगों का अधिकरण है। शरीर अधिष्ठान को पाकर आत्मा भोगों को भोगता है शरीर के विना चाहे जो परमाणुयें डेल, भस्म, आदि भी भोग के अधिष्ठान बन बैठेंगे जो कि तुम बौद्धों को भी अभीष्ट नहीं पडेगा।
परमाणनामपि स्वकारणविशेषातथोत्पत्तेस्तभावाविरोध इति चेन्न, अत्यासन्नासंसष्टरूपतयोत्पत्तेरेव स्कंधतयोत्पत्तेः, अन्यथैकत्वपरिणामविरोधादुक्तदोषस्य निवारयितुमशक्तेरिति विचारितं प्राक् ।
यदि बौद्ध फिर यों कहें कि अपने अपने नियत हो रहे कारण विशेषों से परमाये भी तिस प्रकार इन्द्रिय, लिंग आदि स्वरूप करके उपज जाती हैं, अतः उन लिंग, इन्द्रिय, शरीर, मन, आदि परिणतियों का कोई विरोध नहीं है। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना, क्योंकि आप बौद्धों ने अवयवी स्कन्धपरिणति को स्वीकार नहीं किया हैं। अनेक परमाणुयें ही एक दूसरे के अत्यन्त निकट होकर उपज जाती हैं किन्तु वे परस्पर में संसर्ग को प्राप्त (सम्बद्ध) नहीं होती हैं, इस ढंग की उत्पत्ति को ही स्कन्ध रूप की उत्पत्ति मानी है। जैनसिद्धान्त में परमाणुओं से न्यारी स्कन्ध पर्याय मानी गयी है, जो कि अनेक परमाणुओं का बन्ध होकर एकत्व परणति हुई है । अन्यथा यानी वस्तुभूत स्कन्ध पर्याय को माने विना एकत्व बुद्धि को पैदा करने वाले एकत्व परिणाम हो जाने का विरोध है, अतः अनेक परमाणुओं का नया बनकर स्कन्ध हुआ है ऐसे स्कन्ध को स्वीकार किये विना उक्त दोषों का निवारण नहीं किया जा सकता हैं। इस बात का हम पहिले प्रकरणों में भी विचार कर चुके हैं। " प्रमाण नये रधिगमः" इस सूत्र की आठवी वार्तिक “ कल्पनारोपितोंशी चेत् स न स्यात् कल्पनांतरे, तम्य नार्थक्रियाशक्तिर्न स्पष्टज्ञानवेद्यता" में अंशी स्कन्ध को विचारणापूर्वक सिद्ध कर दिया हैं। " निर्देशस्वामित्व" आदि सूत्रों के व्याख्यान में भी अनेकों की एकत्वपरिणति को न्यारा साधा गया है ।
___ ततः सूक्तं कर्मणः प्रदेशाः स्कन्धत्वेन परिणामविशेषान्नाम्नः प्रत्यया न विरुध्यन्ते तत्त्वतः प्रमाणेनाधिगतेरिति । सर्वात्मप्रदेशेष्विति किमर्थमिति चेदुच्यते
तिस कारण से सूत्र अनुसार ग्रन्थकार ने इस सूत्र की दूसरी वार्तिक में बहुत