Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
अष्टमोध्यायः
तो निर्जरा के अन्य निमित्तकारण का समुच्चय करने के निमित्त तो तप समझना चाहिये कारण कि आगे नववें होती हैं यों सूत्रकार महाराज स्वयं निरूपण करेंगे ।
( १२
लिये है और वह इससे न्यारा अध्याय में तप से निर्जरा भी
संवरात्परत्र पाठ इति चेन्न, अनुभवानुवाद परिहारार्थत्वात् । पृथग्निर्जरावचनमनर्थकं बंधेतर्भावादिति चेन्न अर्थापरिज्ञानात् । फलदानसामर्थ्यं हि अनुभवबंधस्ततोनुभूतानां गृहीतवीर्याणां पुद्गलानां निवृत्तिनिर्जरा सा कथं तत्रांतर्भवेत् ? तस्य तद्धेतुत्वनिर्देशात्तद्भेदोपपत्तेः । यहाँ कोई शंका उठाता है कि आठवें अध्याय में बंधतत्त्व का निरूपण है, अभी तत्त्व का भी निरूपण नहीं हुआ हैं संवर से परली और निर्जरा का पाठ होना चाहिये जैसे तत्त्वों का कथन किया गया है उसी क्रम से उनके व्याख्यान का निर्देश होना न्याय उचित है । ग्रन्थकार समाधान करते हैं कि यह तो न कहना । क्योंकि अनुभव (अनुभागबंध) के पुनः अनुवाद करने का परिहार करने के लिये यहां लाघवप्रयुक्त निर्जरा को कह दिया है । तत्त्वों के उद्देश अनुसार सामान्य रूप से निर्जरा को जान ही लिया है । यदि वहां नवमे अध्याय में ही निर्जरा कही जाती तो कर्मों का विपाक होना अनुभव बंध हैं इसका पुनः अनुवाद करना पड़ेगा, क्योंकि अनुभव के पश्चात् निर्जरा हो जाती है इस अभीष्ट अर्थ की प्रतिपत्ति तभी हो सकती है । अतः सूत्रकार का यह प्रयत्न स्तुत्य है । यहाँ कोई शंका करता है कि निर्जरा का पृथक् निरूपण करना व्यर्थ है कारण कि अनुभव बंध में निर्जरा का अन्तर्भाव हो जायगा । ग्रन्थकार कहते हैं कि यों नहीं कहो, तुमको प्रकरणप्राप्त अर्थ का परिज्ञान नहीं हुआ है । जब कि फल देने की सामर्थ्य को अनुभवबंध कह दिया गया है उससे अनुभव कर लिये गये उन गुगलों की निवृत्ति हो जाना निर्जरा है । जो कि कषायों द्वारा आत्मा के अनुग्रह तथा उपघात करने की शक्ति को ग्रहण कर चुके थे, स्थिति पूर्ण हो चुके कर्म आत्मा को फल देकर हट जाते हैं । कर्मत्व पर्याय से च्युत होकर अन्य पुद्गल अवस्थाओं में प्राप्त हो जाते हैं । भला इतने प्रयोजन को कह रही यह प्रसिद्ध निर्जरा उस बंध में किस प्रकार गर्भित हो सकती थी ? । सूत्रोक्त " ततः यह हेतु में पंचमी है, अनुभवबंध हेतु है और निर्जरा उसका फल है । यों उस अनुभव बंध को उस निर्जरा का हेतु हो जाने का कथन कर देने से उन हेतु और हेतुमान् में भेद की सिद्धि हो जाती है यदि अनुभव बंध में निर्जरा गर्भित हो जाती तो " स निर्जरा " यों सूत्रपाठ हो जाना चाहिये था ।
लघ्वर्थमिहैव तपसा चेति वक्तव्यमिति चेन्न संवरानुग्रहतंत्रत्वात् । तपसा निर्जरा
ܙܙ