Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
प्रवर्तने पर सूत्रकार अब अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं । त्रयस्त्रित्सागरोपमाख्यायुषः ॥ १७ ॥
आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति तो केवल तैतीस सागर काल प्रमाण है ।
पुनः सागरोपमग्रहरणात् कोटीकोटिनिवृत्तिः परास्थितिरित्यनुवर्तते । इयमपि परास्थितिः संज्ञिनः पर्याप्तकस्य । रेषां यथागमं । तद्यथा असंज्ञिनः पंचेन्द्रियस्य पर्याप्तस्य पत्योपमासंख्येयभागा, शेषाणामुक्ता पूर्वकोटी । इयमपि तथैव बाधवजितेत्याहः -
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इस सूत्र में सागरोपम शब्द का फिर दुबारा ग्रहण कर देने से अनुवृत्तिद्वारा चले आ रहे " कोटीकोटी शब्द का निवारण हो जाता है, अतः केवल तंतीस सागर की स्थिति समझी जाती हैं " परास्थितिः " इस शब्द की भी यहां अनुवृत्ति हो रही है अतः नरकायुष्य या देवायुष्य कर्म में उत्कृष्ट स्थिति तैतीस सागर पडती है यह समझ लिया जाता है यह आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति भी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मनुष्य या तिर्यञ्च जीव के ही बन्धेगो, जोकि सर्वार्थसिद्धि या सप्तम नरक को जाने वाले हैं । सर्वार्थसिद्धि को मुनि, मनुष्य ही जाते हैं और सप्तमनरक को मनुष्य और मत्स्य तिर्यञ्च जाते हैं । अन्य केन्द्रिय आदि के बंध रहे आयुष्य कर्म की स्थितियों का परमागम अनुसार निर्णय कर लिया जाय उसी को कुछ स्पष्ट कर इस प्रकार दिखलाते हैं कि असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त हो रहे जीव करके बांधे जा रहे आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति पल्योनम काल
असंख्यातवें भाग है । असंज्ञी जीव मर कर पहिले नरक तक जाता है शेष देव, नारकी, द्विइन्द्रिय, त्रिइन्द्रिय आदि जीवों करके बांधे जा रहे आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति करोड पूर्व वर्षों की पडती हैं । कर्मभूमि के मनुष्य या तिर्यञ्चों की भुज्यमान आयुः इससे अधिक नहीं होती है । चौरासी लाख वर्षों का एक पूर्वाङ्ग काल होता है और चौरासी लाख पूर्वाङ्गों का एक पूर्व नाम का काल होता है । पुव्वसदु परिमाणं सदर खलु कोडि स सहस्साइम्, छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा वास कोड़ीणं " यह आयुः कर्म की उत्कृष्ट स्थिति भी उस ही प्रकार बाधाओं से रहित है जिस प्रकार कि उपरिकथित कर्मों की स्थिति निर्बाध है। इसी बात को ग्रन्थकार अगली वार्तिक में कह रहे हैं ।
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तथायुषस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमसंख्यया ।
परमस्थितिनियतिरिति साकल्यः स्मृता ॥ १ ॥