Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
(८८
उदय काल में अनेक पाक दे रहा वह अनुभागबंध भला किस मुख करके आत्मा को फल उपजावेगा?ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तनेपर ग्रन्थकार अगली वार्तिक को कह रहे हैं ।
विपाकोनुभवो ज्ञेयः पुद्गलादिमुखेन तु ।
कर्मणां फलनिष्पत्तौ सामर्थ्यायोगतोन्यथा ॥ १ ॥
पुद्गल, क्षेत्र, आदि की मुख्यता करके जीव में कर्मों का विपाक हो रहा तो अनुभवबंध समझना चाहिये, अन्य प्रकारों से जोव को फल की उत्पत्ति कराने में कर्मों का सामर्थ्य नहीं है । भावार्थ-जैसे कि कोई मायाचारी दुष्ट पुरुष किसी सज्जन को अनेक द्वारों से दुःख पहुंचाता रहता है उसी प्रकार कर्म भी पुद्गल, भव आदि द्वारों करके जीव को आकुलतायें उपजाते रहते हैं। अन्य शुद्ध, विशुद्ध ढंगों से उनकी फलदानसामर्थ्य का अयोग है।
पुद्गलविपाकिनां कर्मणामंगोपांगादीनां पुद्गलद्वारेणानुभवोऽन्यथात्मनि फलदाने सामर्थ्याभावात् । क्षेत्रविपाकिनां तु नरकादिगतिप्रायोग्यानपूर्यादीनां क्षेत्रद्वारेण, जीवविपाकिनां पुनर्ज्ञानावरणसवेद्यादीनामात्मभावप्रतिषेधाविधानविधानानां जीवमुख्येनैव, भवविपाकिनां तु नारकाद्यायुषां भवद्वारेण तत एव ।
___ शरीर, मन आदि पुद्गलों में विपाक करना जिनकी टेव है ऐसे शरीर अंगो. पांग, निर्माण, स्थिर आदि कर्मप्रकृतियो का पुद्गल द्वारा ही जीव को अनुभाग प्राप्त होता है अन्य प्रकारों से आत्मा को (के लिये) फल देने में कर्मों के सामर्थ्य का अभाव है। परभव के लिये जा रहे जीव को क्षेत्र में विपाक देने की टेववाले नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य, तिर्यञ्चगतिप्रायोग्यान पूर्व्य आदिक क्षेत्रविपाकी कर्मों का तो गमन क्षेत्र द्वार करके आत्मा में अनुभव प्राप्त होगा । साक्षात् जीव में अनुभाग देने की प्रकृति को धार रहे ज्ञानावरण, सातावेदनीय, मोहनीय, गति, गोत्र, आदि कर्मों का फिर विपाक तो जीव की सन्मुखता करके ही होता है । जीव में विपाक करने वाली कुछ वर्मप्रकृतियां तो ऐसी हैं जो आत्मीय भाव का निषेध नहीं करती हैं। मतिज्ञानावरण आदि देशघाती प्रकृतियां तो प्रतिपक्षी गुण को तारतम्यरूप से न्यून कर देती हैं। गति, जाति, आदिक अघाति कर्म प्रकृतियां तो आत्मीय स्वभावों का प्रतिषेध नहीं करती हैं सूक्ष्मत्व आदिक प्रतिजीवीगुणों को प्रकट नहीं होने देती हैं। हाँ, केवलज्ञानावरण, मिथ्यात्व आदि सर्वघाती कर्म तो आत्मीय अनुजीवी भावों का प्रतिषेध कर रहे हैं। एकसौ अडतालीस प्रकृतियों में से अठत्तर प्रकृतियों का जीव