Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्त्वार्थश्लोक वार्तिकालंकारे
उसी प्रकार अब आठवें अन्तरायप्रकृति बंध के उत्तर भेदों को समझाने के लिये सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्र को कह रहे हैं ।
दानलाभभोगोपभोगवीर्याणाम् ॥ १३ ॥
दान देने का विघ्न करनेवाला दानांतराय, लाभ का अन्तराय डालनेवाला लाभान्तराय, भोग का विघ्न करनेवाला भोगान्तराय, और उपभोग को बिगाडनेवाला उपभोगान्तराय, एवं वीर्य यानी सोत्साह पुरुषार्थं का अन्तराय करनेवाला वीर्यान्तराय यों पांच प्रकार का अन्तराय कर्म है ।
दानादीनामन्तरायापेक्षयार्थव्यतिरेक निर्देशः, अन्तराय इत्यनुवर्तनात् । दानादि - परिणामव्याघातहेतुत्वात्तद्व्यपदेशः ।
इस सूत्र में दान आदि कृत्यों के विघ्नस्वरूप अन्तराय की अपेक्षा करके दान आदि पदार्थों के पष्ठी विभक्ति अनुसार भेद का निर्देश (कथन) किया गया है । " आद्यो - ज्ञान " इत्यादि सूत्र से यहाँ अन्तराय इस पद की अनुवृत्ति कर ली जाती है । दान देना; लाभ प्राप्ति करना, आदि परिरणामों के नाश कर देने का कारण होने से उन कर्मों का दानान्तराय, लाभान्तराय आदि शब्दों द्वारा निरूपण कर दिया जाता हैं, तभी तो देने की इच्छा रखता हुआ भी नहीं दे पाता है । लाभ प्राप्त करना चाहता हुआ भी नहीं ले पाता है, भोग भोगना अभीष्ट करता हुआ भी नहीं भोग पाता है, उपभोग करने की तीव्र वाञ्छा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर सकता है। जानना, क्रिया करना आदि में अंतरंग से उत्साह करना चाहता हुआ भी सोत्साह नहीं हो पाता है । आत्मा के वीर्य गुण या उसकी दान आदि पर्यायों को बिगाडने वाला यह अन्तराय कर्म है । आत्मा के समान अन्य पुद्गल आकाश, कालाणुयें, धर्म, अधर्म द्रव्यों में भी वीर्यगुण है । सामर्थ्य के बिना कोई भी द्रव्य किसी भी कार्य को नहीं कर सकता है मात्र जीव द्रव्य के वीर्य गुरण को मंद, मंदतर, मंदतम स्वरूप से विघात करने वाला यह प्रकरण प्राप्त अन्तराय कर्म है ।
भोगोपभोगयोरविशेष इति चेन्न, गंधादिशयनादिभेदतस्तद्भेदसिद्धेः । कुतस्ते दानाद्यन्तरायाः प्रसिद्धा इत्याहः -
यहाँ कोई शंकाकार अपने मत को कह रहा है कि भोग और उपभोग में कोई अन्तर नहीं है । सुखको अनुभव कराने का निमित्तकारणपना दोनों में एकसा है ।