Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
(७४
इति अष्टमाध्यायस्य प्रथममान्हिकम् । आठवें अध्याय का श्री विद्यानन्द स्वामी की ग्रन्थरचना में इस प्रकार प्रथम, आन्हिक यानी प्रकरणसमूह समाप्त हुआ।
जन्मत ही जिनको शममुखछवि, वीतरागविज्ञानमयी, सहस नेत्र से निनिमेष लखि हुआ इन्द्र भी तृप्त नहीं। ऐसे इन्द्र असंख्याते जिस के शरणागत खड़े रहें, वे वरद महावीर हमारे कर्मपटल का नाश करें ॥१॥ जम्बूद्वीप पलटने को सामर्थ्य धरै जिन भक्तिमनाः, असंख्यात देवों से नुत सौधर्म दण्डधर भृत्य बना। ऐसे इन्द्र असंख्यातों से जिनकी शक्ति अनन्तगुरणी, हैं शरण्य श्रीपाश्र्व हमारे तीन भुवन के शिरोमणी ॥२॥
-*-*-*-*-*दृढसामर्थ्ययुक्तानि कर्माणि निचखान यः
स्वानन्तपुरुषार्थेन तस्मै श्रीश्रेयसे नमः ॥१॥
श्री उमास्वामी महाराज प्रकृतिबंध का निरूपण कर अब स्थितिबंधको अग्रिम सूत्र द्वारा कहते हैं। आदितस्तिसृणामतरायस्य च त्रिंशत्सागरोपमकोटीकोटयः परा स्थितिः॥१४॥
इस अध्याय के चौथे सूत्र अनुसार आदि में गिनाई गई ज्ञानावरण; दर्शना. वरण, और वेदनीय इन तीन प्रकृतियों की तथा आठवें अन्तरायकर्म की उत्कृष्ट स्थिति तीस कोटीकोटी सागर प्रमाण है। भावार्थ-जैन सिद्धान्त में संख्यामान के इक्कीस भेद हैं। सबसे बडी उत्कृष्ट अनन्तानन्त नाम की इक्कीसवीं संख्या को धार रहे केवलज्ञान के अविभाग प्रतिच्छेद भी किसी नियत संख्या को लिये हुये हैं। यद्यपि केवलज्ञान के अविभागप्रतिच्छेदों में दश, सौ, पांचसौ मिला देने से अन्तिम इक्कीसवीं संख्या की मर्यादा का भी उल्लंघन हो जाता है। तथापि जगत् में उस बढी हुई संख्या का अधिकारी कोई पदार्थ नहीं होने के कारण वह इक्कीसवीं संख्या ही सर्वोत्कृष्ट मानी गई है। जब संख्या को धारने वाला कोई पदार्थ ही नहीं है तो व्यर्थ में बक-झक करने से क्या लाभ है, वीसवें मध्यम