Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोध्यायः
मरण के साथ तो अन्न, जल, आदि का अन्वय, व्यतिरेक, बन रहा हैं अन्न, जल, स्वच्छ वायु आदि का लाभ होने पर जोवन स्थिर रहता है और अन्न आदि के न मिलने पर या विष, रक्तक्षय, शस्त्राघात, आदि कारण मिल जाने पर संसारी जीव का मरण हो जाता हैं अतः अन्न आदिक ही उन जीदित और मरण के निमित्त कारण हैं,- अदृश्य आयुःकर्म नहीं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह तो न कहना, क्योंकि वे अन्न आदिक तो केवल जीवन के सहायक हो सकते हैं प्रकृष्ट कारण नहीं है। दूसरी बात यह है कि देव और नारकी जीवों में अन्नभक्षण, जलपान आदि का अभाव है देवों के कवल आहार नहीं है, मानसिक आहार है नारकियों के नोकर्म आहार है। यहां लोक में कितने ही मनुष्य, तिर्यंचों को अन्न, जल, औषधि, आदि के मिलने पर भी उनका जीवित स्थिर नहीं रहता है, मरण हो जाता है कुछ दिनों तक अन्न न खाने पर भी कतिपय उपवासी स्त्री, पुरुष, जीवित बने रहते हैं अतः अन्वयव्यभिचार, व्यतिरेकव्यभिचार, प्राप्त हो जाने से अत्र आदि उस जीवित, मरण के कारण दहीं हैं हाँ कुछ मनुष्य तिर्यञ्चों के सहायक मात्र हो सकते हैं ।
नरकेषु तीव्रशीतोष्णवेदनेषु यनिमित्तं दीर्घजीवनं तन्नरकायुः । क्षुत्पिपासा. शीतोष्णवातादिकृतोपद्रवप्रचुरेषु तिर्यक्षु यस्योदयाद्वसनं तत्तैर्यग्योनं । शारीरमानससुखदुःख भूयिष्ठेषु मनुष्येषु जन्मोदयान्मानुष्यायुषः । शारोरमानससुखप्रायेषु देवेषु जन्मोदयाद्देवायुषः ।
तीव्र शीत की वेदना और तीव्र उष्णता को वेदना को करनेवाले नरकों में जिस निमित्त कर्म को पाकर दीर्घकाल तक भवधारण बना रहता है वह नरक आयुःकर्म है। पहिलो, दूसरी, तोसरी और चौथी पृथिवियों में तथा पांचवीं के यौन भागपर्यंत नार. कियों को अत्यन्त उष्णवेदना का दुःख है एवं पांचवीं के नीचले पाव भाग और छठी, सातवीं, पृथिवियों में नारकी जीवों को अत्यन्त शीत की बाधा का महान् दुःख है उष्ण वेदना से शीत बाधाका दुःख बढकर है। जिन तिर्यञ्च जीवों में भूख, प्यास, शोतवेदना, उष्णवेदना, तीववायु, वर्षा, डांस, मच्छर आदि करके हुये उपद्रवों की बहुलता पाई जाती है उन तिर्यञ्च पर्यायों में श्वास के अठारह वें भाग रूप अन्तर्मुहुर्त से प्रारम्भकर तीन पल्य तक अनेक जीवों का निवास करना जिस कर्म से होता है वह तैर्यग्योन आयु है। शरीर संबन्धी और मनःसंबंधी सुख दुःखोंकी बहुलता को झेल रहे मनुष्यों में जीवों का मानष्य आयुके उदय से जन्म हुआ करता है । शारीरिक और मानसिक सुखों के वाहुल्य को धारनेवाले देवों मे जिस आयुके उदय से जन्म हुआ करता है वह दैवआयु समझना चाहिये। कभी कभी प्रिया के वियोग से या महान् ऋद्धि वाले देवों का ईर्षासहित निरीक्षण करने से