Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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तत्वार्थश्लोकवातिकालंकारे
अनुमानप्रमाण हो रहा हैं अन्यथा यानी मोहनीय के अट्ठाईस भेद माने विना उन उपलभ्यमान अट्ठाईस कार्यों की सिद्धि नहीं हो सकती है, यों हेतु की साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति (व्याप्ति) बन रही है। एक बात यह भी हैं कि अन्य दृष्ट कारणों का व्यभिचार हो रहा है। भावार्थ-क्रोध, हास्य आदि के गाली, विदुषक आदि कारण मिलाने पर भी किसी धर्मात्मा पुरुष को क्रोध आदि नहीं उपजते हैं दूसरे को इन कारणों के विना भी क्रोध आदि भाव उपज जाते हैं। अतः क्रोध आदि के दृश्यमान गाली आदि को कारण मानने में व्यभिचार दोष आता है । अतः अंतरंगकारण कर्मों का मानना ही निर्दोष हैं।
अथायुरुत्तरप्रकृतिबंधभेदमुपदर्शयन्नाह;--
अब इसके अनन्तर आयुःकर्म के उत्तर प्रकृतिबंध के भेदों का प्रदर्शन कराते हुये सूत्रकार महाराज अग्रिम सूत्रको स्पष्ट कह रहे हैं।
नारकतर्यग्योनमानुषदैवानि ॥१०॥
जीवों के नरक में उदय हो रही नारक आयु और तिर्यञ्च योनि के जीवोंमें पाई जा रही तैर्यग्योन आयुः तथा मनुष्यों के मनुष्य भव करा रही मानुष्य आयुः एवं देवों में सम्भव रही दैव आयुः, ये चार प्रकार पांचवे आयुःकर्म की उत्तर प्रकृतियां हैं।
आयूषीति शेषः । नारकादिभवसंबंधेनायुर्वपदेशः।
इस सूत्र में उद्देश्यदल कंठोक्त है, हाँ विधेयदल आयुये हैं। इतना शेष रह गया हैं उद्देश्यदल और शेष रहे विधेयदल का अन्वय लगाकर ये चार आययें हैं यों अर्थ कर लिया जाता है । नारक आदिक या नारक आदि में भवधारण के संबन्ध करके आयुःका भी नारक आदि शब्द करके व्यवहार हो जाता है । " आऊणि भवविवाई" आयुष्य कर्म का भव में विपाक होता है । अतः जो भव का नाम है वही आयुःका नाम उपचार से कह दिया है।
यद्भावाभावयोर्जीवितमरणं तदायुः । अन्नादि तन्निमित्तमिति चेन्न, तस्योपग्राहकत्वात् देवनारकेषु चान्नाद्यभावात् ।
जिस विशेष कर्म के उदयापन्न सद्भाव से आत्मा का संसार में विवक्षित पर्याय युक्त होकर जीवन हो रहा है, और जिस उदयप्राप्त कर्म का अभाव होने पर संसारी जीव का मरण हो जाता है, वह आयुःकर्म है। यहाँ कोई शंका करता है कि जीवित और