Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
अष्ठमोध्यायः
(५२
निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला यह पदप्रयोग साधु नहीं बन सकता हैं । अनेक अधिकरण नहीं होनेसे यह वीप्सा नहीं सम्भवती है? ग्रन्यकार कहते हैं कि यह तो नहीं कहना। क्योंकि काल, देश, अवस्था, आकृति आदि भेद करके उस एक वस्तुके भी भेद सिद्ध हो जाते हैं, आप पटु हैं, पहिले भी पटु ही थे वही अब अत्यधिक दक्ष हो, यों काल भेदसे एक ही व्यक्तिमें पटुकी वीप्सा हो जाती है, तथा देशभेदसे भी एक ही व्यक्तिमें वीप्सा घट जाती हैं 'पहिले मथुरामें देखा गया था वही पुरुष अब पटनामें देखा जा रहा है कि यहां तुम दूसरे ही हो गये हो, उस पुरुषका जैसे देश भेद अनुसार उस बीप्सा का बन जाना घटित हो जाता हैं उसी प्रकार कालभेद और देशभेदसे अनेकपनको धारण कर रहे उस एक आत्मामें भी निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला यों वीप्सा बन जाना समुचित है अथवा अभीक्ष्यपन यानी बारबार वर्तनेकी विवक्षा करनेपर निद्रानिद्रा और प्रचलाप्रचला यों दोपना प्रसिद्ध हो जाता है जैसे कि बारबार प्रवृत्ति करनेपर घर घर में पीछे पीछे प्रवेश करता हुआ ठहरता है। यहां गेहं गेहं इसमें अभीक्ष्णता में द्वित्व हुआ है।
• निद्रादिकर्मसद्वद्योदयात् निद्राविपरिणामसिद्धिः। निद्रादीनामभेदेनाभिसंबंधविरोध इति चेन्न विवक्षातः संबंधात् ।।
निद्रा आदि कर्म और सद्वेद्यकर्म के उदय से आत्मा के निद्रा आदि परिणामों की सिद्धि हो जाती है। नींद के आ जाने पर शोक, ग्लानि आदि का विनाश हो गया देखा जाता है रोग भी न्यून होता है । अतः अंतरंगमें सवेंदनीय कर्म का उदय हो रहा स्पष्ट रूप से जान लिया जाता है । सोते समय अस द्वेदनीय का मन्द उदय है, हां क्लोरोफार्म सूंघना, भूछित हो जाना आदि अवस्थाओं में असद्वेद्य का तीव्र उदय है अर्थात् पापप्रकृति मानी गयी निद्रा के साथ पुग्यप्रकृति सातावेदनीय लगी हुई है। यों तो शिकार खेलना, अब्रह्मसेवना, शतक्रीडा आदि करते समय भी कषायवात् जीवोंको आनन्द आता है। बात यह है कि पातिकर्म माने गये स्त्रीवेद, पुंवेद, निद्रा, हास्य, रति इन कर्मों के उदय के साथ सातावेदनीय का उदय सहचरित है। श्वेताम्बरों ने हास्य आदि को पुण्यप्रकृतियोंमें गिना है वह प्रशस्त माग नहीं है। सूत्र में कहे गये निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला; प्रचलाप्रचला और स्त्यान गद्धि की अनूवत्ति किये जा रहे दर्शनावरण के साथ अभेद करके संबन्ध कर लेना चाहिये। यहां कोई शंका उठाता है कि चक्षु आदि चार का षष्ठी विभक्ति अनुसार दर्शनावरण के साथ भेदनिर्देश लिया गया है और निद्रा आदि पांच के साथ प्रथमाविभक्ति अनुसार अभेद निर्देश किया गया है यों एक ही दर्शनावरण की अपेक्षा कर भेद और अभेद करके संबंध