Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
(५०
गया भी आँखों को नहीं उघाड़ सकता है नींद में ही नाना बातें कहने लग जाता है। आंखे उघाड़ते हुये ही नींदको रक्तिमा आँखोंमे आकर थोडा आलस्य आजाना, थोड़ा थोड़ा ज्ञान रहते भी वार वार शीघ्र सोजाना, जगजाना प्रचला है । यह नींद सर्वसे श्रेष्ठ है । तथा सोते हुये लार बहने लग जाय, अंग उपांग चलने लगजांय, बडे बडे खुरटे आवें वह नींद प्रचलाप्रचला है । स्वप्न में भी जिससे वीर्यविशेषका प्रादुर्भाव होकर सोता हुआ ही जीव अनेक रौद्रकार्यों को कर आवे, अंटसंट बोले भी फिर भी सावचेत नहीं होय, पुनः गाढा सोजाय, ऐसी स्त्यानगृद्धि को करनेवाला स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण हैं । दर्शनावरण कर्म आत्माके चेतना गुणकी आलोचनापरिणति को रोकता है । यह आलोचनापरिणति ज्ञानसे भिन्न है । प्रमाणनय स्वरूप नहीं है । मिथ्याज्ञान स्वरूप भी नहीं है आलोचना में मिथ्या या सम्यक् भेद नहीं पाये जाते हैं । " दंसणपुत्रं गाण छदुमत्थाणं" मतिज्ञान और अवधिज्ञानके अव्यवहित पूर्व में दर्शन होता है। हाँ यदि इन ज्ञानोंकी कुछ देरतक धारा चलती जाय तो सबसे पहिला हुआ दर्शन ही काम देगा कैसे कि अवग्रह ज्ञानके प्रथम दर्शन हो गया अब ईहा, अवाय--: धारणा नामक मतिज्ञानोंमें प्रत्येक के लिये पूर्व में दर्शन की आवश्यकता नहीं है । कोई मनुष्य पांच मिनट तक यदि किसीके रूपको ही देखता रहा या रस ही चाटता रहा अथवा शब्द ही सुनता रहा तो पांच मिनटों में धारारूपसे हुये सेकडो उपयोग आत्मक चाक्षुष मतिज्ञान, रासनप्रत्यक्ष, श्रोत्रजमतिज्ञानों में फिर प्रत्येक के लिये पूर्ववर्ती दर्शनका होना अनिवार्य नहीं है । मिनट यां पांच मिनट तक होरहे दुर्ध्यान या धर्मज्ञानरूप हजारो लाखों श्रुतज्ञानों में भी प्रत्येक के लिये पूर्व में दर्शन होना आवश्यक नहीं है । हां श्रुतज्ञान और मनः पर्यय ज्ञान के व्यवहित पूर्व में दर्शन होता है । कारणकि इन दो ज्ञानोंके प्रथम मतिज्ञान होता है। और मतिज्ञानके पहिले दर्शन होताही हैं कहीं धारारूपेण कतिपय श्रुतज्ञान हो जाते हैं और उनके पूर्व अनेक मतिज्ञान प्रवर्त चुके रहते है हाँ उन सबके पहिले एक दर्शन हो चुका पाया जाता है । कुमति कुश्रुतज्ञानपूर्वक हुये विभंग ज्ञान के प्रथम भी दर्शन नहीं होता है । केवलज्ञान के साथ में ही केवलदर्शन होता है जिसका कि फल त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थोंकी महासत्ताका युगपत् आलोचन करना है । जो कि ज्ञानावरणका क्षय हो जानेपर धाराप्रवाहसे सतत प्रवर्त रहे केवलज्ञानरूप सूर्य के महान् प्रकाशमें सम्मिलित है ।
अष्टमोऽध्यायः
चक्षुरादीनां दर्शनावरण संबधादेदनिर्देश: चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां दर्शनाचरणानोति । मददमविनोदार्थः स्वापो निद्रा, उपर्युपरि तद्वृत्तिनिद्रानिद्रा । प्रचलयत्यात्मानमिति प्रचला, पौनःपुन्येन सैवाहितवृत्तिः प्रचलाप्रचला, स्वप्ने यथा वीर्यविशेषाविर्भावः सा स्त्यानगृद्धिः स्त्याने स्वप्ने गृध्यति दीप्यते रौद्रबहुकर्म करोति यदुदयादित्यर्थः ।