Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
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कारणवश पड गये अनेक स्वभावोंसे अनेक कार्य हो रहे हैं जैसे कि एक अग्निके दाह करना पचाना, उष्णप्रताप करना, प्रकाश करना ये सामर्थ्य पायीं जाती हैं। बात यह है कि अग्नी मे दाहकत्व, पाचकत्व आदि अनेक स्वभाव हैं तदनुसार वह अनेक शक्तिओं का पिण्ड हो ही एक अग्नी भी असंख्य कार्यों को कर सकती है । " यावन्ति कार्याणि तावन्त: प्रत्येकस्वभाव भेदाः । परस्परं व्यावृत्ता: " यही सत्यमार्ग हैं " क र्य वेद: कार भेद देव भवति इन नियम की जैन सिद्धान्त में अक्षुण्ण प्रतिष्ठा है । दूसरी बात यह है कि अनेकान्तवादमे द्रव्य अनेक धर्मों से युक्त सिद्ध किया गया है । द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से कर्म पुद्गल द्रव्य एक हैं तथा अनेक परमाणु या उनके गुण एवं कर्मों की पर्याय शक्तियां और स्वभाव इन पर्याय की अपेक्षा तो पर्यायार्थिक दृष्टी अनुसार कर्म द्रव्य अनेक भी हैं । तिस कारण अनेक कारणों करके अनेक कार्यों की उत्पत्ति होती रहने से कोई विरोध नहीं है । द्रव्य का एकत्व, अनेकत्व आदि रूप करके व्यभिचार नहीं आता है अथवा " नैकत्वादिरूपेणैकान्तिकत्वं पाठ होनेपर • एकत्वादिरूप करके द्रव्यका एकान्त नही है जिससे कि विरोध दोष आता, उपलभ्यमान हो रएकत्व, नानात्व, आत्मक वस्तु मे विरोध दोष नहीं आता है "अनुपलम्भसाध्यो विरोधः" अथवा यों अर्थ किया जासकता हैं कि जब द्रव्य में एकत्व आदि एक ही अर्थ का एकान्त नहीं पुष्ट हुआ तो एक द्रव्य को अनेक कार्योंका निमित नहीं
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होने देने मेवाग
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विरोध हेतु व्यभिचारी हैं ।
पराभिप्रायेगोन्द्रियाणं भिन्नजातीयानां क्षीराद्युपभोगे वृद्धिवत् । वृद्धिरेकैवेति चेन्न, प्रतींद्रिय वृद्धिभेदात् । तथैवातुल्यजातीयेनानुग्रह सिद्धिः । तेन चेतनस्यात्मनोऽचेतन कर्मानुग्राहकं सिद्धं भवति ।
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अथवा हमने जो एक ही कर्म पुद्गलद्रव्य को अनेक सुख, दुःख आदिकों का निमित्तपना कहा है वह दूसरे नैयायिक या वैशेषिक अथवा चार्वाक पण्डितोंके अभिप्राय करके कहा गया हैं । वैशेषिक पण्डित स्पर्शन इन्द्रिय को वायुसे बना हुआ स्वीकार करते हैं, पृथिवो से धारण इन्द्रिय आरब्ध है इन से विजातीय माने जा रहे जलद्रव्य से रसना 'इन्द्रिय बनी हुई है भिन्न जातीय परमाणुवाले तेजो द्रव्यसे चक्षुः इन्दिय सम्पन्न हुई है । चकों ने भी " पृथ्विव्यप्तेजोवायुरिति तत्त्वानि ततः शरीरेन्द्रियविषयसंज्ञा " ऐसा कहकर पृथ्वी आदिक से इन्द्रियोंकी उत्पत्ति स्वीकार की है । यों उन दूसरे पण्डितों के अभिप्राय अनुसार भिन्न भिन्न जातिवाले द्रव्योंसे आरम्भ हुई इन्द्रियों की जैसे दूध, घी, बादाम आदि एक एक के भी उपयोग करनेपर वृद्धि हो जाती है । उसी प्रकार एक कर्म द्रव्य भी जीव हैं