Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
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अष्टमोऽध्यायः
(४२
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दीखनेसे दूसरी उत्तर प्रकृतियां भी साध लेने योग्य हैं । भावार्थ-ज्ञानका आवरण हो जान आदि कार्य विशेषोंसे जैसे ज्ञानावरण आदि मूल प्रकृतियोंका अनुमान करलिया जाता हैं, उसी प्रकार उनके भी व्याप्य कार्य हो रहे मतिज्ञानका आवरण चक्षुरिंद्रियावरण आदि भेद प्रभेदों ( ज्ञापक हेतु) से कारण स्वरूप उत्तर प्रकृतियों को साध लिया जाता है "पर्वतो वन्हिमान् धूमात्" के समान कार्य हेतुसे कारण की सिद्धि करनेपर कारण विचाराज्ञाप्यसाध्य हो जाता है और कार्य तो ज्ञापक हेतु हो जाता है । यों अनेक भेद प्रभेदरूप दृश्यमान कार्योंसे अंतरंग कारण हो रहे कर्मोंको उत्तर प्रकृतियों या उत्तरोत्तर प्रकृतियों का अनुमान कर लिया जाता है ।
पंवानामात्रियमाणानामावृतिकार्यभेदात्पं वभेदं
तत्र केषां ज्ञानानां
ज्ञानावरण मित्याह ;
वहाँ किसीका प्रश्न है कि उत्तर प्रकृतियों द्वारा आवरण किये जा रहे कौन - कौन से पांच ज्ञानों की आवृत्ति हो रहे स्वरूप कार्यों के भेदसे ज्ञानावरण कर्म भला उन कर्मोंमें पांच भेदोंवाला माना गया है ? बताओ। ऐसी जिज्ञासा प्रवर्तनेपर सूत्रकार महाराज अग्रिमसूत्रको समाधानार्थ कह रहे हैं ।
मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलानाम् ॥६॥
मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान, इन पांच ज्ञानोंके आवरण करनेवाले कर्म पांच होते है, अर्थात् मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधि ज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और केवल ज्ञानावरण, ये ज्ञानावरण कर्म की पांच उत्तर प्रकृतियां हैं ।
मत्यादोन्युक्तलक्षणानि, मत्यादीनामिति पाठो लघुत्वादिति चेन्न, प्रत्येकमभिसंबंधार्थत्वात् । तेन पंच ज्ञानावरणानि सिद्धानि भवंति । पंचवचनात्पंचसंख्याप्रतीतिरिति चेन्न, प्रत्येकं पंचत्वप्रसंगात् । प्रतिपदं पठेत् । मतेरावरणं श्रुतस्यावरणमित्याद्यभिसंबंधात् प्रत्येकं पंचावररणानि प्रसज्यन्ते ।
मति, आदि ज्ञानोंके लक्षण तो प्रथम अध्याय में कहे जा चुके हैं । यहाँ कोई पण्डित आशंका उठाता है कि मति आदिक ज्ञान जब कहे ही जा चुके हैं तो यहां आदि शब्द करके श्रुतज्ञान आदिका ग्रहगा होय ही जायगा । अतः " मत्यादीनां" इतना ही पाठ सूत्रम किया जाय, क्योंकि इसमें अनेक अक्षरोंका लाघत्र है जो कि सूत्रमें अत्यावश्यक है, ग्रन्थकार