Book Title: Tattvarthshlokavartikalankar Part 7
Author(s): Vidyanandacharya, Vardhaman Parshwanath Shastri
Publisher: Vardhaman Parshwanath Shastri
View full book text
________________
अष्टमोध्यायः
( ३३
गुण है जो कि अपनी और विषय विषयांशों की विकल्पनायें कर स्वपरप्रकाशात्मक है ज्ञानसे कथंचित् तदात्मक हो रहे सुख, दुःख इच्छा आदि भी स्वसंवेद्य हो रहे हैं, शेष सभी गुण या द्रव्य किसी की विकल्पनायें नही कर सकते हैं अतः वे निराकार माने गये हैं, यों देखाजाय तो जिस द्रव्य की जो भी कुछ लम्बाई, चौडाई, मोटाई स्वरूप आकृति है उस द्रव्य के गुणोंका भी वही आकार समझा जायेगा अथवा " निर्गुणा गुणाः," इस सिद्धान्त अनुसार गुणों मे प्रदेश कत्व गुण के विवर्त हो रहे आकार का निषेध संभव जानेपर गुणो में निराकारता पुष्ट हो जाती है। हां, एकार्थसमवायसंवेद्य (कथंचित्, सहोदर, तादात्म्य,)से गुणों को आकृतिसहित कहा जा सकता हैं, " साकारं ज्ञानं, निराकारं दर्शनं ' यहां आकार का अर्थ व्यवसाय करना विकल्पनाये करना, संवित्ति करना, मात्र है । अतः ज्ञान और दर्शन के भेद अनुसार उनके प्रतिपक्ष हो रहे कर्मोंका भी भेद है। जबकि उस ज्ञानावरण के कार्य हो रहे औदयिक साव अज्ञान में और दर्शनावरण कर्म के कार्य हो रहे अदर्शन में भेद हो रहा है। अतः , उन कर्मोसे आवरण किये जा रहे ज्ञान और दर्शन परिणामो में अन्यपना है, यों ज्ञानावरण
और दर्शनावरण के भेद को साधनेवाला यह ज्ञान और दर्शन का अन्यपना हेतु बढिया समुचित है, श्रेष्ठ युक्तिवाला हैं।
__ज्ञानावरणस्याविशेषेपि प्रत्यास्रवं मत्यादिविशेषो जलवत् । एतेनेतरारिण व्याख्यातानि दर्शनावरण दीन्यपि प्रत्यारवं मूलोत्तरप्रकृतिविकल्पभांजि विभाज्यंते । सकल कर्मप्रकृतीनां कार्यविशेषानुमेयत्वादिद्रियशक्तिविशेषवत् । तदेवाह :
ज्ञानावरण कर्म की सामान्यतया पिंडरूप से कोई विशेषता नहीं होते हुये भी भिन्नभिन्न आस्रवों के प्रति मतिज्ञानावरण श्रुतज्ञानावरण आदिकी भिन्न भिन्न विशेषता हो जाती है। जैसे कि एकरसवाला भी मेघजल नाना हरी, पीली,नीली शुक्ल, बोतलो में कतिपय
औषधि स्वरूप अथवा नाना वृक्षोंमें अनेक सामोंके भेदसे व्यवस्थित हो जाता है। उसी प्रकार मतिज्ञान का आवरण करने की शक्ति मतिज्ञानावरण मे पडजाती हैं । और श्रुत ज्ञानावरण कर्म में श्रुतज्ञान को रोकने की सामर्थ्य हो जाती हैं । इस कथन करके अन्य दर्शनावरण मोहनीय आदि कर्मोंका भी उपलक्षण करके व्याख्यान कर दिया गया समझलेना चाहिये । दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आदिक भी प्रत्येक स्पर्धक का आस्रव होनेपर मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृति तथा उत्तरोत्तरप्रकृति इन विकल्पों को धार रहे सन्ते विचार लिये जाते हैं अथवा विभाग को प्राप्त हो जाते हैं । जिस प्रकार रस रुधिर, हड्डी, आदि कार्योंका प्रत्यक्ष होजानेसे सामान्य खाद्य, पेय पदार्थों का उन उन