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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका लाख श्लोक-प्रमाण होने से संसार का सबसे बड़ा काव्य समझा जाता है। पर वह सब एक व्यक्ति की रचना नहीं है । वीरसेन की रचना मात्रा में शतसाहस्री महाभारत से थोड़ी ही कम है, पर वह उन्हीं एक व्यक्ति के परिश्रम का फल है । धन्य है वीरसेन स्वामी की अपार प्रशा और अनुपम साहित्यिक परिश्रम को । उनके विषय में भवभूति कवि के वे शब्द याद आते
उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा, कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।
वीरसेनाचार्य का रचनाकाल -
वीरसेनाचार्य का समय निश्चित है । उनकी अपूर्ण टीका जयधवला को उनके शिष्य जिनसेनने शक स. ७५९ की फाल्गुन शुक्ल दशमी तिथि को पूर्ण की थी और उस समय अमोघवर्ष का राज्य था । मान्यखेट के राष्ट्रकूट नरेश अमोध वर्ष प्रथम के उल्लेख उनके समय के ताम्रपटों में शक स. ७३७ से लगाकर ७८८ तक अर्थात् उनके राज्य के ५२ वें वर्ष तक के मिलते हैं । अत: जयधवला टीका अमोघवर्ष के राज्य के २३ वीं वर्ष में समाप्त हुई सिद्ध होती है । स्पष्टत: इससे कई वर्ष पूर्व धवला टीका समाप्त हो चुकी थी और वीरसेनाचार्य स्वर्गवासी हो चुके थे ।
धवला टीका के अन्त की जो प्रशस्ति स्वयं वीरसेनाचार्य की लिखी हुई हम ऊपर उद्धृत कर आये हैं उसकी छटवीं गाथा में उस टीका की समाप्ति के सूचक काल का निर्देश है। किन्तु दुर्भाग्यत: हमारी उपलब्ध प्रतियों में उसका पाठ बहुत भ्रष्ट है इससे वहां अंकित
१. इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । वाटग्रामपुरे श्रीमद्गूर्जरार्यानुपालिते।६॥
फाल्गुने मासि पूर्वाह्न दशम्यां शुक्लपक्षके । प्रवद्धमानपूजोरुनन्दीश्वरमहोत्सवे ॥७॥ अमोघवर्षराजेन्द्रराज्यप्राज्यगुणोदया। निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पान्तमनल्पिका ॥ ८॥ एकोन्नषष्टिसमधिकसप्तशताव्देषु शकनरेन्द्रस्य । समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ॥
जयधवला प्रशस्ति २. Altekar : The Rashtrakutas and their times, p.71. Dr. Altekar, on page 87 of his book says "His (Amoghavarsha's) latest known date is Phalguna S'uddha 10, S'aka 799 (i.e. March 878 A.D.), When the Jayadhavala Tika of Virasena was finished. This is a gross mistake. He has wrongly taken S'aka 759 to be saka 799.