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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
२९३ यद्यपि अनेक जैन गणितज्ञों के नामज्ञात हैं,परंतु उनकी कृतियां लुप्त हो गई हैं। उनमें सबसे प्राचीन भद्रबाहु हैं जो कि ईसा से २७८ वर्ष पूर्व स्वर्ग सिधारे । वे ज्योतिष विद्या के दो ग्रन्थों के लेखक माने जाते हैं (१) सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका; और (२) भद्रबाहवी संहिता नामक एक मौलिक ग्रंथ । मलयगिरि (लगभग११५० ई.) ने अपनी सूर्यप्रज्ञप्ति की टीका में इनका उल्लेख किया है, और भट्टोत्पल' (९६६) ने उनके ग्रन्थावतरण दिये हैं। सिद्धसेन नामक एक दूसरे ज्योतिषी के ग्रन्थावतरण वराहमिहिर (५०५) और भट्टोत्पल द्वारा दिये गये हैं। अर्धभागधी और प्राकृत भाषा में लिखे हुए गणितसम्बन्धी उल्लेख अनेक ग्रन्थों में पाये जाते हैं। धवला में इस प्रकार के बहुसंख्यक अवतरण विद्यमान हैं। इन अवतरणों पर यथा स्थान विचार किया जायगा । किन्तु यहां यह बात उल्लेखनीय है कि वे अवतरण नि:संशयरूप से सिद्ध करते हैं कि जैन विद्वानों द्वारा लिखे गये गणित ग्रंथ थे जो कि अब लुप्त हो गये हैं। क्षेत्र समास और करण भावना के नाम से जैन विद्वानों द्वारा लिखित ग्रंथ गणितशास्त्र सम्बन्धी ही थे । पर अब हमें ऐसा कोई ग्रंथ प्राप्य नहीं है। हमारा जैन गणितशास्त्र सम्बन्धी अत्यन्त खंडित ज्ञात स्थानांग सूत्र, उमास्वातिकृत तत्वार्थाधिगमसूत्रभाष्य, सूर्यप्रज्ञप्ति, अनुयोगद्वार सूत्र, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, त्रिलोकसार आदि गणितेतर ग्रन्थों से संकलित है । अब इन ग्रन्थों में धवला का नाम भी जोड़ा जा सकता है। धवला का महत्व
धवला नौवीं सदी के प्रारंभ में वीरसेन द्वारा लिखी गई थी। वीरसेन तत्वज्ञानी और धार्मिक दिव्यपुरुष थे । वे वस्तुत: गणितज्ञ नहीं थे। अत: जो गणितशास्त्रीय सामग्री धवला के अन्तर्गत है, वह उनसे पूर्ववर्ती लेखकों की कृति कही जा सकती है, और मुख्यतया पूर्वगत टीकाकारों की, जिनमें से पांच का इन्द्रनन्दी ने अपने श्रुतावतार में उल्लेख किया है। ये टीकाकार कुंदकुंद, शामकुंद, तुंबुलूर, समन्तभद्र और बप्पदेव थे, जिनमें से प्रथम लगभग सन २०० के और अन्तिम सन् ६०० के लगभग हुए । अत: धवला की अधिकांश गणितशास्त्रीय सामग्री सन् २०० से ६०० तक के बीच के समय की मानी जा सकती है । इस प्रकार भारतवर्षीय गणितशास्त्र के इतिहासकारों के लिये धवला प्रथमश्रेणी का महत्वपूर्ण ग्रंथ हो जाता है, क्योंकि उनमें हमें भारतीय गणितशास्त्र के इतिहास के सबसे अधिक
१ वृहत्संहिता, एस. द्विवेदीद्वारा सम्पादित, बनारस, १८१५, पु. २२६ २ शीलांकने सूत्रकृतांगसूत्र, स्मयाभ्ययन अनुयोगद्वार, श्लोक २८, पर अपनी टीका में मंगसंबंधी (regarding permutations and combination) तीन नियम उद्धृत किये हैं। ये नियम किसी जैन ग्रंथ में से लिये गये जान पड़ते हैं।