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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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शरीर में एक भी निगोद जीव नहीं रहता तो वहाँ उनके आधारभूत अन्य क्रमिरूप त्रस जीवों की सम्भावना ही नहीं की जा सकती है । यही कारण है कि केवली जिनके शरीर को कृमिरूप स जीवों और बादरनिगोद जीवों से रहित बतलाया है ।
निगोद जीव क्षीणकषाय जीव के शरीर में से क्यों मरने लगते हैं, इसका समाधान वीरसेन स्वामी ने इस प्रकार किया है । उनका कहना है कि ध्यान के बल से वहाँ उत्तरोत्तर बादर निगोद जीवों की उत्पत्ति का निरोध होता जाता है, इसलिए क्रम से नये बादर निगोद जीव उत्पन्न नहीं होते हैं और जो पुराने बादर निगोद जीव होते हैं उनकी आयु पूर्ण हो जाने
कारण वे मर जाते हैं । यद्यपि क्षीणकषाय के शरीर में बादर निगोदजीव सर्वथा उत्पन्न ही नहीं होते ऐसी बात नहीं है। प्रारम्भ में तो वे उत्पन्न होते हैं और क्षीण कषायगुणस्थान के काल में बादर निगोदजीव की जघन्य आयुप्रमाण काल के शेष रहने तक वे उत्पन्न होते हैं । इसके बाद नहीं उत्पन्न होते । यहाँ यह प्रश्न होता है कि जिस प्रकार प्रारम्भ में वे उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार क्षीणकषाय के अन्तिम समय तक वे क्यों नहीं उत्पन्न होते ? समाधान यह है कि केवली का शरीर प्रतिष्ठित प्रत्येक रूप है ऐसा षट्खण्डागम शास्त्र का अभिप्राय है । अब यदि यह माना जाता है कि क्षीणकषाय जीव के शरीर में अन्तिम समय तक बादर निगोद जीव उत्पन्न होते हैं तो केवली जिनके शरीर में भी बादर निगोद जीवों का सद्भाव मानना पड़ता है। चूंकि केवली जिन के शरीर में बादर निगोद जीवों का सद्भाव नहीं बतलाया है, इसलिए यह बातसुतरां सिद्ध हो जाती है कि क्षीणकषाय के शरीर में अन्तिम समय तक बादर निगोद जीव न उत्पन्न होकर जहाँ तक सम्भव है वहीं तक उत्पन्न होते हैं ।
साधारणतः अन्य शास्त्रों में केवली जिनके शरीर को सात धातु और उपधातु से रहित परमौदारिक रूप कहा गया है और यह भी बतलाया है कि केवली के शरीर के नख और केश नहीं बढ़ते । केवली होने के समय शरीर की जो अवस्था रहती है, आयु के अन्तिम समय तक वही अवस्था बनी रहती है, सो इन सब बातों का रहस्य इस मान्यता में छिपा हुआ है। इसका अर्थ यह नहीं लेना चाहिए कि उनके शरीर में से हड्डी आदि का अभाव हो जाता है। जो चीज जैसी होती है वह वैसी ही बनी रहती है । मात्र उसमें से बादर निगोद जीव और उनके आधारभूत क्रमि का अभाव हो जाने से वह उस प्रकार पुद्गल का संच्चय मात्र रह जाता है । उदाहरण के लिए दूध लीजिए । गाय के स्तनों से दूध निकालने पर कुछ काल में उसमें जीवत्पत्ति होने लगती है, पर अग्नि पर अच्छी तरह से तपा लेने पर उस में कुछ काल तक जीवत्पत्ति नहीं होती । किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह दूध ही नहीं रहता ।