________________
४६३
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका आयुओं का अल्पबहुत्व बतलाया गया है। आगे जघन्य और उत्कृष्ट बादर और सूक्ष्म निगोद जीवों की पुलवियों का परिमाण बतलाकर सब निगोदों की उत्पत्ति में कारण महास्कन्ध के अवयव आठ पृथिवी, टङ्क, कूट,भवन,विमान, विमानेन्द्रक आदि बतलाये गये हैं। साथ ही यह भी बतलाया गया है कि जब महास्कन्ध के स्थानों का जघन्य पद होता है तब बादर त्रसपर्याप्तकों का उत्कृष्ट पद होताहै और जब बादर त्रसपर्याप्तकों का जघन्य पद होता है तब मूल महास्कन्ध स्थानों का उत्कृष्ट पद होता है ।
आगे मरणयवमध्य और शमिलायवमध्य आदि का कथन करने के लिए संदृष्टियाँ स्थापित करके सब जीवों में महादण्ड का कथन किया गया है और संदृष्टियों में जो बादत दरसाई गई है उसका यहाँ सूत्रों द्वारा प्रतिपादन किया गयाहै । यहाँ विशेष जानकारी के लिए मूल का स्वाध्याय अपेक्षित है । इस प्रकार इतने कथन द्वारा 'जत्थेय मरइ जीवों' इस गाथा की प्ररूपणा समाप्त होती है।
अब पाँच शरीरों के ग्रहण योग्य कौन वर्गणाएँ हैं और कौन ग्रहण योग्य नहीं है इस बात का ज्ञान कराने के लिए ये चार अनुयोगद्वार आये हैं- वर्गणाप्ररूपणा, वर्गणानिरूपणा, प्रदेशार्थता और अल्पबहुत्व । वर्गणाप्ररूपणा में पुन: एक प्रदेशी परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणा से लेकर कार्मणाद्रव्य वर्गणा तक की सब वर्गणाओं का नामोल्लेख किया गया है। वर्गणानिरूपणा में इन वर्गणाओं में से एक-एक वर्गणा को लेकर यह वर्गणाग्रहण प्रायोग्य नहीं है ऐसी पृच्छा करके जो जो वर्गणाग्रहण प्रायोग्य नहीं है उसे अग्रहणप्रायोग्य बतलाकर अन्त में यही पृच्छा अनन्तानन्त परमाणु पुद्गल द्रव्य वर्गणाके विषय में करके यह बतलाया गया है कि इसमें से कुछ वर्गणाएँ ग्रहणप्रायोग्य हैं और कुछ वर्गणाएँ ग्रहणप्रायोग्य नहीं हैं । इसका विशेष खुलासा करते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि इस सूत्र में जघन्य आहारवर्गणा से लेकर महास्कन्धद्रव्य वर्गणा तक सब वर्गणाओंकी अनन्तानन्तप्रदेशी परमाणुपुद्गलद्रव्यवर्गणा संज्ञा है । इनमें से आहारवर्गणा, तैजसवर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणाशरीरवर्गणा ये पाँच वर्गणाएँ ग्रहणप्रायोग्य हैं, शेष नहीं । जो पाँचवर्गणाएँ ग्रहणप्रायोग्य हैं उनमें आहरवर्गणा में से औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर और आहारकशरीर इन तीन शरीरोंका ग्रहण होता है । तैजसवर्गणा में से तैजसशरीर का ग्रहण होताहै । भाषावर्गणा में से चार प्रकार की भाषाओं का ग्रहण होता है। मनोवणा में से चार प्रकार के मन की रचना होती है और कार्मणावर्गणा में से ज्ञानावरणादि आठ प्रकार के कर्मों का ग्रहण होता है । इन सूत्रों की टीका करते हुए वीरसेन स्वामी ने एक बहुत ही महत्व की बात की ओर ध्यान आकृष्ट किया है । उनका कहना है कि यद्यपि आहारवर्गणा से औदारिक आदि तीन शरीरों का निर्माण होता है पर जिन आहारवर्गणाओं से औदारिकशरीर कानिर्माण