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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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वह सर्वथा मुक्ति का कारण होता है इतना मात्र यहाँ विशेष है । इसी अभिप्राय को ध्यान में रखकर नोआगमद्रव्यमोक्ष के मोक्ष, मोक्षकरण और मुक्त ये तीन भेद किये गये हैं । जीव और कर्मों का वियुक्त हो जाना मोक्ष है । सम्यग्दर्शन आदि मोक्ष के कारण हैं और समस्त कर्मों से रहित अनन्त गुण युक्त शुद्ध बुद्ध आत्मा मुक्त है । मोक्ष अनुयोगद्वार में इसका भी विस्तार के साथ विचार किया गया है ।
१२. संक्रम- संक्रम का छह प्रकार का निक्षेप करके उसके आश्रय से इस अनुयोगद्वार में विचार किया गया है । क्षेत्र संक्रम का निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक क्षेत्र का क्षेत्रान्तर को प्राप्त होना क्षेत्रसंक्रम है। इस पर यह शंका की गई कि क्षेत्र निष्क्रिय होता है, इसलिए उसका अन्य क्षेत्र में गमन कैसे हो सकता है । उसका समाधान वीरसेनस्वामी ने इस प्रकार किया है कि जीव और पुद्गल सक्रिय पदार्थ हैं, इसलिए आधेय में आधार का उपचार करने से क्षेत्रसंक्रम बन जाता है । कालसंक्रम का निर्देश करते हुए बतलाया है कि एक काल गत होकर नवीन काल का प्रादुर्भाव होना कालसंक्रम है । लोक में हेमन्त ऋतु या ग्रीष्म ऋतु संक्रान्त हुई ऐसा व्यवहार भी देखा जाता है। यहाँ विवक्षित क्षेत्र और विवक्षित काल में स्थित द्रव्य की क्षेत्र और काल संज्ञा रखकर भी क्षेत्रसंक्रम और कालसंक्रम घटित कर लेना चाहिए, ऐसा वीरसेनस्वामी ने सूचित किया है ।
इस प्रकार संक्षेप से छह निक्षेपों का विचार करने के पश्चात् विवक्षित अनुयोगद्वार में कर्म संक्रम को प्रकृत बतलाकर उसके चार भेद किये हैं- प्रकृतिसंक्रम, स्थितिसंक्रम, अनुभाग संक्रम और प्रदेशसंक्रम । एक प्रकृति का अन्य प्रकृतिरूप से संक्रान्त होना यह प्रकृतिसंक्रम है । इस विषय में विशेष नियम ये हैं । यथा- किसी भी मूलप्रकृति का अनय मूलप्रकृतिरूप से संक्रमण नहीं होता । उदाहरणार्थ, ज्ञानावरण का दर्शनावरणरूप से संक्रमण नहीं होता । इसीप्रकार अन्य मूल प्रकृतियों के विषय में भी जानना चाहिए । उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा जिस मूल कर्म की जितनी उत्तर प्रकृतियाँ हैं उनमें परस्पर संक्रमण होता है । उसी प्रकार अन्य मूल प्रकृतियों में से जिसकी जितनी उत्तर प्रकृतियाँ हों उनके परस्पर संक्रमण के विषय में यह नियम जानना चाहिये । मात्र दर्शनमोहनीय का चारित्रमोहनीय में और चारित्रमोहनीय का दर्शनमोहनीय में संक्रमण नहीं होता तथा चार आयुओं का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए ।
भागहार की दृष्टि से संक्रम के पाँच भेद हैं- अधः प्रवृत्तसंक्रम, विध्यातसंक्रम, उद्वेलनासंक्रम, गुणसंक्रम और सर्वसंक्रम। इनमें से प्रकृत में इन अवान्तर भेदों की दृष्टि से संक्रम का विचार न करके वीरसेन स्वामी ने बन्ध के समय होने वाले इस संक्रम का