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आचार्य डा. हीरालाल जैन
___ डॉ. हीरालाल जैन प्राच्य विद्या के विशिष्ठ क्षेत्र 'जैन सिद्धान्त' तथा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषा साहित्य के अप्रतिम और समर्पित विद्वान थे। ईसा की दूसरी शताब्दी में रचित षट्खंडागम का सात्विक श्रमसाध्य सम्पादन और आठवीं शती में लिखी गई उसकी धवलाटीका के भाष्य, भाषानुवाद और शास्त्रीय भूमिका के साथ षोड़शिक प्रस्फोटन उनकी अनन्य उपलब्धि है। जैन धर्म, साहित्य और दर्शन के क्षेत्र में अपने अद्वितीय योगदान के कारण वे जैन मनीषा की परम्परा में 'सिद्धान्त चक्रवर्ती' पदवी से विभूषित किये जाने के अनन्य अधिकारी हैं।
_____ उत्तर मध्ययुगीन लुप्तप्राय: अपभ्रंश साहित्य की विविध विधाओं की प्रतिनिधि रचनाओं की खोज, सम्पादन और उनकी संरचनात्मक भूमिका के साथ पुनर्रचना डॉ. हीरालाल जैन की अनुपम देन है। इस उपलब्धि से हिन्दी और आधुनिक भाषाओं के साहित्य की पूर्व परम्परा की टूटी कड़ियाँ जुड़ती हैं और भाषिक विकास तथा भारतीय चिंताधारा की रससिद्ध परम्परा पुष्ट होती है।
___डॉ. हीरालाल जैन का व्यक्तित्व प्रभावशाली था । देव-गन्धों की तरह सांचे में ढली उनकी गौरवर्णी देहयष्टि, उन्नत ललाट, आजानुबाहु भव्य तन और दिव्य मन के हीरालाल किसी भी परिधान में मनमोहक थे। अनुपमेय थे। अनन्वय अलंकार की तरह अपनी उपमा आप ही थे। उनमें अपूर्व विद्धता थी जो अध्यापक की गरिमा और चिंतन की गुरुता से सदैव भासमान रही। मधुरालाप सहजानुराग, ज्ञान के प्रति आग्रह, सहज जिज्ञासा, समताभाव, आडम्बर-शून्य सहज, सरल बौद्धिक तरलता, व्यक्ति को परखने की अद्भुत क्षमता, आसक्ति और कषायों पर सहज नियंत्रण, उनका प्रकृत रूप था। नियमित प्राणायाम और योगाभ्यास से जीवन पर्यंत उनकी देह आकर्षक और चित्त सुकुमार बना रहा।
५ अक्टूबर १९९९ को डॉ हीरालाल जैन की जन्म शताब्दी पूरी होती है और ५ अक्टूबर २००० को शताब्दी वर्ष । शतवार्षिकी आयोजनों में उनके अप्रकाशित साहित्य का प्रकाशन प्रमुख उद्यम है। शतवार्षिकी प्रकाशन के अंतर्गत उनके जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व और कुल परम्परा तथा वंशवृक्ष की संक्षिप्त जानकारी हमारी योजना का अनिवार्य अंग है।