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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४९२ कारण वही है । हाँ उससे नीचे एक स्थिति के जाने पर जो स्थितिविकल्प स्थित है उसका उत्कर्षण हो सकता है और वैसी अवस्था में एक आवलिप्रमाण अतिस्थापना होती है तथा शेष आबलिका असंख्यातवाँ भाग निक्षेप होता है। इस प्रकार संक्षेप में उत्कर्षण का निर्देश करके आगे निक्षेप और अतिस्थापना का अल्पबहुत्व बतलाया गया है।
आगे उत्तरप्रकृतिसंक्रम के प्रमाणानुगम का निर्देश करते हुए वह उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य के भेद से चार प्रकार का बतलाया है। उदाहरणार्थ मतिज्ञानावरण का उत्कृष्ट स्थिति संक्रम दो आबलि कम तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होता है, क्योंकि किसी भी प्रकृति का बन्ध होने पर एक आबालि काल तक उसका संक्रमण नहीं होता, इसलिए एक आबलि तो यह कम हो जाती है । इसके बाद उदयावलि को छोड़कर शेष स्थिति का अन्य बन्ध को प्राप्त होने वाली प्रकृति में संक्रमण होता है, इसलिए एक आबलि यह कम हो जाती है । इस प्रकार उक्त दो आबलियों को छोड़कर शेष सब स्थित संक्रमण से प्राप्त हो सकती है, इसलिए मतिज्ञानावरण की उत्कृष्ट संक्रमस्थिति दो आबलि कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण कही है । पर उस समय उस कर्म की स्थिति आबलि कम तीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण होती है, इसलिये उसका यत्स्थितिसंक्रम एक आवलि कम तीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कहा है । इस प्रकार मूल में मात्र मतिज्ञानावरण का उदाहरण देकर शेष कर्मों के विषय में उत्कृष्ट स्थितिउद्दीरणा के समान उत्कृष्टस्थितिसंक्रम जानने की सूचना की है
और जिन कर्मों में उत्कृष्ट स्थितिउद्दीरणा से भेद है उनका अलग से निर्देश कर दिया है सो विचारकर उसे घटित कर लेना चाहिए । स्वतन्त्ररूप से विचार किया जाय तो उसका तात्पर्य इतना ही है कि जो बन्ध से उत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम दो आवलिकम अपनी अपनी उत्कृष्टस्थितिप्रमाण प्राप्त होताहै और उत्कृष्टयस्थितिसंक्रम एक आवलि कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है । परन्तु जो बन्धोत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ न होकर संक्रमोत्कृष्ट स्थितिवाली प्रकृतियाँ हैं उनका उत्कृष्टस्थितिसंक्रम तीन आवलि कम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है और उत्कृष्ट यस्थितिसंक्रम दो आवलि कम उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त होता है। मात्र दर्शनमोहनीय की तीन प्रकृतियों में तथा आहारकद्विक और तीर्थंकर प्रकृति में जो विशेषता है उसे अलग से जान लेना चाहिए । चारों आयुओं का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है वही उनका उत्कृष्ट स्थितिसंक्रम है, क्योंकि एक आयु का अन्य आयु में संक्रम नहीं होता । मात्र इनकी यस्थिति एक आवलि कम उत्कृष्ट आबाधासहित अपनी-अपनी उत्कृष्टस्थितिप्रमाण कही है। इनकी उत्कृष्ट यत्स्थिति इतनी कैसे कही है इस विषय को श्वेताम्बर कर्मप्रकृति की टीका में स्पष्ट