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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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स्वामित्व, एक जीव की अपेक्षाकाल, एक जीव की अपेक्षा अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय, काल, अन्तर और अल्पबहुत्व इन अनुयोगद्वारों का आश्रय लेकर उत्तरप्रकृतिसंक्रम का विचार किया है।
स्वामित्व का निर्देश करते हुए बतलाया है कि पाँच ज्ञानवरण, नौ दर्शनावरण, बारह कषाय और पाँच अन्तराय का अन्यतर सकषाय जीव संक्रामक होता है । असाताका बन्ध करने वाला जीव साताका संक्रामक होता है और साताका बन्ध करनेवाला सकषाय जीव असाता का संक्रामक होता है। दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का परस्पर संक्रम नहीं होता यह तो स्पष्ट ही है । दर्शनमोहनीय के संक्रम के विषय में यह नियम है कि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव दर्शनमोहनीय का संक्रामक नहीं होता । सम्यक्त्व का मिथ्यादृष्टि जीव संक्रामक होता है। मात्र सम्यक्त्व का एक आवलि प्रमाण सत्कर्म शेष रहने पर उसका संक्रम नहीं होता । मिथ्यात्व का सम्यग्दृष्टि जीव संक्रामक होता है । मात्र जिस सम्यग्दृष्टि के एक आवलित से अधिक सत्कर्म विद्यमान है ऐसा जीव इसका संक्रामक होता है। यही नियम सम्यग्मिथ्यात्व के लिए भी लागू करना चाहिए । पर इसका संक्रामक मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनों होते हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेद का उपशम और क्षय क्रिया का अन्तिम समय प्राप्त होने तक कोई भी जीव संक्रामक होता है । पुरुषवेद और तीन संज्वलन का उपशम और क्षय का प्रथम समय प्राप्त होने तक कोई भी जीवसंक्रामक होता है। संज्वलन लोभ का ऐसा जीव संक्रामक होता है जिस उपशामक और क्षपकने संज्वलन लोभ के अन्तर का अन्तिम समय नहीं प्राप्त किया है। तथा जो अक्षपक और अनुशामक है वह भी इसका संक्रामक होता है। चारों आयुओं का संक्रम नहीं होता ऐसा स्वभाव है । यश: कीर्तिको छोड़कर सब नामकर्म की प्रकृतियों का सकषाय जीव संक्रामक होता है । मात्र जिसके एक आबलि से अधिक सत्कर्म विद्यमान हैं ऐसा जीव इनका संक्रामक होता है । यश: कीर्ति का संक्रामक तब तक होता है जब तक परभव सम्बन्धी नामकर्म की प्रकृतियों को बन्ध करता है । उच्चगोत्र का संक्रामक नीचगोत्र का बन्ध करने वाला अन्यतर जीव होता है। मात्र एक आबलि से अधिक सत्कर्म के रहते हुए उच्चगोत्र का संक्रामक होता है । नीचगोत्र का संक्रामक उच्चगोत्र का बन्ध करने वाला अन्यतर जीव होता हे । इस प्रकार सब प्रकृतियों के स्वामित्व को जान कर काल आदि अनुयोगद्वारों का विचार कर लेना चाहिए । मूल में इनका विचार किया ही है, इसलिए विस्तारभय से यहाँ उनका अलग अलग निर्देश नहीं करते हैं ।