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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४६९ उदीरणा - उदयावलीबाह्म स्थिति को आदि लेकर आगे की स्थितियों के बन्धावली अतिक्रान्त प्रदेश पिण्ड का पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रतिभाग से या असंख्यात लोक प्रतिभाग से अपकर्षण करके उसको उदयावली में देना, उसे उदीरणा कहा जाता है । अभिप्राय यह है कि उदयावली को छोड़कर आगे की स्थितियों में से प्रदेशपिण्ड को खींचकर उसे उदयावली में प्रक्षिप्त करने को उदीरणा कहते हैं । वह दो प्रकार की है - एक-एकप्रकृतिउद्दीरणा और प्रकृतिस्थानउदीरणा । एक-एक प्रकृतिउदीरणा की प्ररूपणा में प्रथमत: उसके स्वामियों का विवेचन किया गया है। उदाहरणार्थ ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों की उदीरणा के स्वामी का निर्देश करते हुए बतलाया है कि इन कर्मों की उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय गुणास्थान तक होती है। विशेषता इतनी है कि क्षीणकषाय के काल में एक समय अधिक आवलीमात्र शेष रहने पर उनकी उदीरणा व्युच्छिन्न हो जाती
तत्पश्चात् एक-एक प्रकृति उदीरणा विषयक एक जीव की अपेक्षा काल और अन्तर तथा नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय, नाना जीवों की अपेक्षा काल और अल्पबहत्व की प्ररूपणा की गयी है। नाना जीवों की अपेक्षा उसके अन्तर की सम्भावना ही नहीं है। एक-एक प्रकृति का अधिकार होने से यहाँ भुजाकार, पदनिक्षेप और वृद्धि उदीरणा की भी सम्भावना नहीं है।
प्रकृतिस्थान उदीरणा की प्ररूपणा में स्थानसमुत्कीर्तना करते हुए मूल प्रकृतियों के आधार से ये पांच प्रकृतिस्थान बतलाये गये हैं - आठों प्रकृतियों की उदीरणारूप पहिला, आयु के बिना शेष सात प्रकृतियों रूप दूसरा; आयु और वेदनीय के बिना शेष छह प्रकृतियों रूप तीसरा; मोहनीय, आयु और वेदनीय के बिना शेष पांच प्रकृतियों रूप चौथा; तथा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु और अन्तराय के बिना शेष दो प्रकृतियों रूप पांचवां ।
स्वामित्वप्ररूपणा में उक्त स्थानों के स्वामियों का निर्देश करते हुए बतलाया है कि इनमें से प्रथम स्थान, जिसका आयु कर्म उदयावली में प्रविष्ट नहीं है ऐसे प्रमत्त (मिथ्यादृष्टि से लेकर प्रमत्तसंयत तक प्रमाद युक्त) जीव के होता है। द्वितीय स्थान भी उक्त जीव के ही होता है । विशेषता केवल इतनी है है कि उसका आयु कर्म उदयावली में प्रविष्ट होना चाहिये । तीसरा स्थान सातवें गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक होता है । चौथे स्थान का स्वामी छद्मस्थ वीतराग (उपशान्तकषाय और क्षीणमोह) जीव होता है ।