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पखंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४६० शरीरविनसोपचयप्ररूपणा - यद्यपि पांच शरीर में स्निग्धादि गुणों के कारण जो परमाणुपुद्गल सम्बद्ध होकर रहते हैं उनकी विस्रसोपचय संज्ञा है। फिर भी यहाँ पर इन विस्रसोपचार्यो के कारणभूत जो स्निग्धादि गुण हैं उन्हें भी कारण में कार्य का उपचार करके विस्रसोपय कहा गया है । इस प्रकार यहां इन्हीं स्निग्धादि गुणों का इस अनुयोगद्वार में अपने छह अवान्तर अनुयोगद्वारों का आश्रय लेकर विचार किया गया है । उनके नाम ये हैं - अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा, अन्तरप्ररूपणा, शरीरप्ररूपणा
और अल्पबहुत्व । अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा में बतलाया है कि औदारिक शरीर के एक एक प्रदेश में सब जीवों से अनन्तगुणे अनन्त अविभागप्रतिच्छेद होते हैं । वर्गणाप्ररूपणा में बतलाया है कि इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेदवाले सब जीवों से अनन्तगुणे परमाणुओं की एक वर्गणा होती है और ये सब वर्गणाएँ अभव्यों अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण होती हैं । इतनी वर्गणाओं का एक औदारिकशरीरस्थान होता है यह उक्त कथन का तात्पर्य है । स्पर्धक प्ररूपणा में बतलाया है कि अभव्यों से अनन्तगुणी और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाणवर्गणाओं का एक स्पर्धक होता है। तथा सब स्पर्धक मिलकर भी इतने ही होते हैं । अन्तर प्ररूपणा में बतलाया है कि एक स्पर्धक् से दूसरे स्पर्धक के मध्य अन्तर सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेदकों को लेकर होता है । अर्थात् पिछले स्पर्धक की अन्तिम वर्गणा में जितने अविभागप्रतिच्छेद उससे अगले स्पर्धक की प्रथम वर्गणा में जानने चाहिए । शरीर प्ररूपणा में बतलाया है कि अनन्त अविभागप्रतिच्छेद शरीर के बन्धन के कारणभूत गुणों का प्रज्ञा से छेद करने पर उत्पन्न होते हैं और फिर यहीं पर प्रसंग से छेद के दस भेदों का स्वरूपनिर्देश किया गया है । अल्पबहुत्व में पांच शरीरों के अविभागप्रतिच्छेदों के अल्पबहुत्व का विचार करके शरीरविनसोपचयप्ररूपणा समाप्त की गई है।
विनसोपचयप्ररूपणा - जो पाँच शरीरों के पुद्गल जीव ने छोड़ दिये हैं और जो औदायिकभाव को छोड़कर सब लोक में व्याप्त होकर अवस्थित है उनकी यहाँ विस्रसोपचय संज्ञा मानकर विस्रसोपचयप्ररूपणा की गई है । एक-एक जीवप्रदेश अर्थात् एक-एक परमाणु पर सब जीवों से अनन्तगुणे विस्रसोपचय उपचित रहते हैं और वे सब लोक में से आकर विस्रसोपचयरूप से सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं। या वे पाँच शरीरों के पुद्गल जीव से अलग होकर सब आकाश प्रदेशों से सम्बन्ध को प्राप्त होकर रहते हैं। इस प्रकार जीव से अलग होकर सब लोक को प्राप्त हुए उन पुद्गलों की द्रव्यहानि, क्षेत्रहानि, कालहानि और भावहानि किस प्रकार होती है, आगे यह बतलाया गया है और यह बतलाने