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विषय-परिचय (पु.१४) बन्धन के चार भेद हैं - बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । यहाँ इस अनुयोगद्वार में बन्धक और बन्धविधान की सूचनामात्र की है, क्योंकि बन्धक का विशेष विचार खुद्दाबन्ध में और बन्धविधान का विशेष विचार महाबन्ध में किया है । शेष दो प्रकरण अर्थात् बन्ध और बन्धनीय का विचार इस अनुयोगद्वार में किया है । इस अनुयोगद्वार में बन्धनीय के प्रसंग से वर्गणाओं का विशेष रूप से ऊहापोह किया गया है, इसलिए ही स्पर्श से लेकर यहां तक के पूरे प्रकरण की वर्गणाखण्ड संज्ञा पड़ी है । अब संक्षेप में इस भाग में वर्णित विषय का ऊहापोह करते हैं - १. बन्ध
बन्ध के चार भेद हैं - नामबन्ध, स्थापनाबन्ध, द्रव्यबन्ध और भावबन्ध । इनमें से नैगम, संग्रह और व्यवहारनय सब बन्धों को स्वीकार करते हैं। ऋजुसूत्रनय स्थापनाबन्ध को स्वीकार नहीं करता है, शेष को स्वीकार करता है । शब्द नय केवल नामबन्ध और भावबन्ध को स्वीकार करताहै । कारण स्पष्ट है ।
एक जीव एक अजीव, नानाजीव और नाना अजीव आदि जिस किसी का बन्ध ऐसा नाम रखना नामबन्ध है । तदाकार और तदाकार पदार्थो में यह बन्ध है ऐसी स्थापनाकरना स्थापनाबन्ध है । द्रव्यबन्ध के दो भेदहैं - आगमद्रव्यबन्ध और नोआगामद्रव्यबन्ध । भावबन्ध के भी ये ही दो भेद हैं। बन्धविषयक स्थित आदि नौ प्रकार के आगम में वाचना आदिरूप जो उपयुक्त भाव होता है उसे आगम भावबन्ध कहते हैं। नोआगमभावबन्ध दो प्रकार का है - भावबन्ध के भी ये ही दो भेद हैं । बन्धविषयक स्थित आदि नौ प्रकार के आगम में वाचना आदि रूप जो उपयुक्त भाव होता है उसे आगम भावबन्ध कहते हैं। नोआगमभावबन्ध दो प्रकार का है-जीवभावबन्धऔर अजीवभावबन्ध। जीवभावबन्ध के तीन भेद हैं - विपाकज जीवभावबन्ध दो प्रकार का है - जीवभावबन्ध और अजीवभावबन्ध । जीव भावबन्ध के तीन भेद हैं - विपाकज जीवभावबन्ध, अविपाकज जीवभावबन्ध और तदुभयरूप जीवभावबन्ध । जीवविपाकी अपने-अपने कर्म के उदय से जो देवभाव, मनुष्यभाव, तिर्यच्चभाव, नारकभाव, स्त्रीवेद, पुरुषवेद आदि रूप औदयिक भाव होते हैं वे सब विषाकजजीवभावबन्ध कहलाते हैं । अविपाकज जीवभावबन्ध के दो भेद हैं - औपशामिक और क्षायिक । उपशान्त क्रोध, उपशान्त मान आदि औपशमिक