________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४४८ अविपाकज जीवभावबन्ध कहलाते हैं और क्षीणमोह, क्षीणमान आदि क्षायिक अविपाकज जीवभावबन्ध कहलाते हैं । यद्यपि अन्यत्र जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये तीन पारिणामिक मानकर इन्हें अविपाकज जीवभावबन्ध कहा है । पर ये तीनों भाव भी कर्म के निमित्त से होते हैं, इसलिये यहाँ इन्हें अविपाकज जीवभावबन्ध में नहीं गिना है। तथा एकेन्द्रियलब्धि आदि क्षायोपशमिकभाव तदुभयरूप जीवभावबन्ध कहे जाते हैं। अजीब-भावबन्ध भी विपाकज, अविपाकज और तदुभय के भेद से तीन प्रकार का है । पुद्गलविपाकी कर्मों के उदय से शरीर में जो वर्णादि उत्पन्न होते हैंवे विपाकज अजीबभावबन्ध कहलाते हैं। तथा पुद्गल के विविध स्कन्धों में जो स्वाभाविक वर्णादि होते हैं वे अविपाकज अजीवभावबन्ध कहलाते हैं और दोनों मिले हुए वर्णादिक तंदुभयरूप अजीबभावबन्ध कहलाते हैं।
यह हम पहले ही संकेत कर आये हैं कि द्रव्यबन्ध दो प्रकार का है - आगमद्रव्य बन्ध और नोआगमद्रव्यबन्ध । बन्धविषयक नौ प्रकार के आगम में वाचना आदिरूप जो अनुपयुक्त भाव होता है उसे आगमद्रव्यबन्ध कहते हैं। नोआगम द्रव्यबन्ध दो प्रकार का है- प्रयोगबन्ध और विस्रसाबन्ध । विस्रसाबन्ध के दो भेद हैं - सादिविस्रसाबन्ध और अनादिविस्रसाबन्ध । अलग-अलग धर्मास्तिकाय का अपने देशों और प्रदेशों के साथ, अधर्मास्तिकाय का अपने देशों और प्रदेशों के साथ और आकशस्तिकाय का अपने देशों
और प्रदेशों के साथ अनादिकालीन जो बन्ध हैं वह अनादिविस्रसाबन्ध कहलाता है। तथा स्निग्ध और रूक्षगुणयुक्त पुद्गलों का जो बन्ध होता है वह सादि विस्रसाबन्ध कहलाता है। सादिविससा बन्ध के लिए मूल ग्रन्थ का विशेष रूप से अवलोकन करना आवश्यक है। नाना प्रकारके स्कन्ध इसी सादि विस्रसाबन्ध के कारण बनते हैं। प्रयोगबन्ध दो प्रकारका है - कर्मबन्ध और नोकर्मबन्ध। नोकर्मबन्ध के पाँच भेद हैं - आलापनबन्ध, अल्लीवणाबन्ध, संश्लेषबन्ध, शरीरबन्ध और शरीरिबन्ध । काष्ठ आदि पृथग्भूत द्रव्यों को रस्सी आदि से बाँधना आलापनबन्ध हैं । लेपविशेष के कारण विविध द्रव्यों के परस्पर बँधने को अल्लीवणाबन्ध कहते हैं। लाख आदि के कारण दो पदार्थों का परस्पर बँधना संश्लेषबन्ध कहलाता है। पाँच शरीरों का यथायोग्य सम्बन्ध को प्राप्त होना शरीरबन्ध कहलाता है। इस कारण पाँच शरीरों के द्विसंयोगी और त्रिसंयोगी पन्द्रहभेद हो जाते हैं। नामों का निर्देश मूल में किया ही है । शरीरिबन्ध के दो भेद हैं - सादि शरीरिबन्ध और अनादि शरीरिबन्ध । जीव का औदारिक आदि शरीरों के साथ होने वाले बन्ध को सादि शरीरिबन्ध कहते हैं । यद्यपि तैजस और कार्मणा शरीर का जीव के साथ अनादिबन्ध है पर यहाँ अनादि सन्तानबन्ध की विवक्षा न होने से वह सादि शरीरिबन्ध में ही गर्भित कर लिया गया है। कर्मबन्ध का विशेष विचार कर्मप्रकृति अनुयोगद्वारमें पहले ही कर आये हैं।