________________
षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४१५
(१) जीवसमुदाहार में यह बतलाया है कि जो जीव ज्ञानावरणादि रूप ध्रुवप्रकृतियों बन्धक हैं वे दो प्रकार होते हैं- सातबन्धक, और असातबन्धक । इसका कारण यह है कि साता व असातावेदनीय के बन्ध के बिना उक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियों का बन्ध सम्भव नहीं है । इनमें जो सात बन्धक हैं वे तीन प्रकार हैं - चतु: स्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और द्विस्थानबन्धक । असातबन्धक भी तीन प्रकार ही हैं - द्विस्थानबन्धक, त्रिस्थानबन्धक और चतुःस्थानबन्धक । इनमें साता के चतुः स्थानबन्धक सर्वविशुद्ध (अतिशय मंदकषायी), उनसे उसी के त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर होते हैं । असाता के द्विस्थानबन्धक सर्वविशुद्ध, इनसे त्रिस्थानबन्धक संक्लिष्टतर, और इनसे भी उसके चतुः स्थानबन्धक संक्लिष्टतर होते हैं साता के चतु:स्थानबन्धक जीव उक्त ज्ञानावरणादि प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को, त्रिस्थानबन्धक अजघन्य अनुत्कृष्ट स्थिति का तथा द्विस्थानबन्धक उत्कृष्ट स्थिति को बाँधते हैं। असाता के द्विस्थानबन्धक उपर्युक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थिति को, त्रिस्थानबन्धक अजघन्य-अनुत्कृष्ट स्थिति को, तथा चतुः स्थानबन्धक उक्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति
साथ ही असाता की भी उत्कृष्ट स्थिति को बांधते हैं । तत्पश्चात साता व असाता के चतुः स्थानबन्धक व द्विस्थानबन्धक आदि जीवों में ज्ञानावरण की जघन्य आदि स्थितियों को बाँधनेवाले जीव कितने हैं, तथा ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग से बंधने वाली स्थितियाँ कौन-कौन सी हैं, इत्यादि बतलाकर छह यवों के अधस्तन व उपरिम भागों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है ।
(२) प्रकृतिसमुदाहार में प्रमाणानुगम और अल्पबहुत्व ये दो अनुयोगद्वार हैं इनमें प्रमाणानुगम के द्वारा ज्ञानावरणादि कर्मों की स्थिति के बन्ध के कारण भूत स्थिति बन्धाध्यवसायस्थानों के प्रमाण की प्ररूपणा तथा अल्पबहुत्व के द्वारा उक्त आठों कर्मों के स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों के अल्प बहुत्व की प्ररूपणा की गयी है ।
(३) स्थितिसमुदाहार में प्रगणना, अनुकृष्टि और तीव्र - मंदता ये तीन अनुयोगद्वार हैं । इनमें प्रगणना के द्वारा ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति पर्यन्त पाये जानेवाले स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों की संख्या और उनके अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गयी है । अनुकृष्टि में उपर्युक्त जघन्य आदि स्थितियों में इन्हीं स्थिति बन्धाध्यवसायस्थानों की समानता व असमानता का विचार किया गया है। तीव्र-मंदता अनुयोगद्वार में जघन्घ स्थिति - आदि के आधार से स्थितिबन्धाध्यवसायस्थानों के अनुभाग की तीव्रता व मंदता का विवेचन किया गया है। इस प्रकार द्वितीय चूलिका के समाप्त हो जाने पर प्रस्तुत वेदनाकालविधान अनुयोगद्वार समाप्त होता है ।