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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४२२ (३) सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम - इस प्ररूपणा में जीवों से रहित स्थान कम से कम एक दो और तीन से लेकर अधिक से अधिक असंख्यातलोकप्रमाण होते हैं यह बतलाया गया है।
(४) नानाजीवकालप्रमाणानुगम - इस प्ररूपणा में एक-एक स्थान में नाना जीव जघन्य से एक समय तक और उत्कृष्ट से आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण कालतक होते हैं, यह बतलाया गया है।
(५) वृद्धिप्ररूपणा - इसके दो भेद हैं - अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधा में जघन्य स्थान से लेकर द्वितीयादि स्थानों में कितने जीव होते हैं, यह बतलाया गया है तथा परम्परोपनिधा में जघन्य अनुभागस्थान में जितने जीव हैं उनसे असंख्यातलोक जाकर वे दूने हो जाते हैं, इत्यादि बतलाया गया है ।
(६) यवमध्यप्ररूपणा - इस प्ररूपणा में सब स्थानों का असंख्यातवां भाग यवमध्य होता है यह बतलाकर यवमध्य के नीचे के स्थान सबसे थोड़े हैं और उपरिम स्थान असंख्यातगुणे हैं यह बतलाया गया है।
(७) स्पर्शनप्ररूपणा - इस प्ररूपणा में उत्कृष्ट अनुभागबन्ध स्थान, जघन्य अनुभाग बन्धस्थान, काण्डक और यवमध्य आदि का एक जीव के द्वारा स्पर्शनकाल कितना है, इसका विचार किया गया है।
(८) अल्पबहुत्व - उत्कृष्ट अनुभागस्थान, जघन्यअनुभागस्थान, काण्डक और यवमध्य में कहाँ कितने जीव हैं इसके अल्पबहुत्व का विचार इस प्ररूपणा में किया गया है। ८. वेदनाप्रत्ययविधान
इस अनुयोगद्वार में नैगमादि नयों के आश्रय से ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की वेदना के बन्ध कारणों का विचार किया गया है । यथा - नैगम, व्यवहार और संग्रह नय की अपेक्षा सब कर्मों की वेदना का बन्ध प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रिभोजन, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, माया, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग से होता है । ऋजुसूत्रनयकी अपेक्षा प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध योग से तथा स्थितिबन्ध
और अनुभागबन्ध कषाय से होता है। तथा शब्द नयकी अपेक्षा किससे किसका बन्ध होता है यह कहना सम्भव नहीं है, क्योंकि इस नयमें कार्यकारणसम्बन्ध नहीं बनता। ९. वेदनास्वामित्वविधान
इस अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के स्वामी का विचार किया गया