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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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अनुयोगद्वारों का आलम्बन लेकर किया जाता है । उसमें पहले प्रकृतिनिक्षेप का विचार करते हुए इसके नामप्रकृति, स्थापनाप्रकृति, द्रव्यप्रकृति और भावप्रकृति ये चार भेद किये गये हैं और इसके बाद कौन नय किस प्रकृति को स्वीकार करता है, यह बतलाते हुए कहा है कि नैगम, व्यवहार और संग्रह नय सब प्रकृतियों कोस्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्रनय स्थापनाप्रकृति को स्वीकार नहीं करता । शब्दनय केवल नामऔर भावप्रकृति को स्वीकार करता है । कारण स्पष्ट है । आगे नामप्रकृति आदि का विस्तार से विचार किया है । यथा
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नामप्रकृति -- जीव और अजीव के एकवचन और बहुवचन तथा एक संयोगी और द्विसंयोगी जो आठ भेद हैं उनमें से जिस किसी का 'प्रकृति' ऐसा नाम रखना वह नामप्रकृति है ।
स्थापनाप्रकृति -- काष्ठकर्म आदि में व अक्ष व वराटक आदि में बुद्धि से 'यह प्रकृति है' ऐसी स्थापना करना वह स्थापना प्रकृति है ।
द्रव्यप्रकृति -- द्रव्य का अर्थ भव्य है । इसके दो भेद हैं - आगमद्रव्यप्रकृति और नोआगमद्रव्यप्रकृति | आगमद्रव्यप्रकृति में प्रकृतिविषयक शास्त्र का जानकार उपयोगरहित जीव लिया गया है । अतः आगम के अधिकारी भेद से स्थित, जित, परिजित, वाचनोपगत, सूत्रसम, अर्थसम, ग्रन्थसम, नामसम और घोषसम ये नौ भेद करके उनकी वाचना, पृच्छना, प्रतीच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षणा, स्तव, स्तुति और धर्मकथा द्वारा ज्ञान सम्पादन की बातकही है। इसविधि से प्रकृति विषयकज्ञान सम्पादनकर जो उसके उपयोग से रहित है वहआगमद्रव्यप्रकृति कहलाता है, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । द्रव्यप्रकृति का दूसरा भेद नोआगमद्रव्यप्रकृति है । इसके दो भेद हैं- कर्मद्रव्यप्रकृति और नोकर्मद्रव्यप्रकृति । यह सर्वप्रथम नोकर्मद्रव्यप्रकृति के अनेक भेदों का संकेत करके कुछ उदाहरणों द्वारा नोकर्म की प्रकृति बतलाई गयी है । यथा - घट, सकोरा आदि की प्रकृति मिट्टी है, धान की प्रकृति जौ है, और तर्पण की प्रकृति गेहूं है । तात्पर्य यह है कि किसी कार्य के होने में जो पदार्थ निमित्त पड़ते हैं उन्हें नोकर्म कहते हैं । गोम्मटसार कर्मकाण्ड में ज्ञानावरणादि आठ कर्मों की दृष्टि से प्रत्येककर्म के नोकर्म का स्वतन्त्र विवेचन किया है । यथा- वस्त्रज्ञानावरण का नोकर्म है । तलवार वेदनीय का नोकर्म है । मद्य मोहनीय का नोकर्म है। आहार आयुकर्म का नोकर्म है । देह नाकर्म का नोकर्म है । उच्च-नीच शरीर गोत्रकर्म का नोकर्म है । भण्डारी अन्तराय कर्म का नोकर्म है । तात्पर्य यह है कि वस्त्रादि द्रव्य के सामने आ जाने पर ज्ञानावरण का उदयविशेष होता है, जिससे वस्तु का ज्ञान नहीं होता, इसलिए इसकी नोकर्म संज्ञा है । उसी प्रकार अन्य कर्मों के नोकर्म को घटितकर लेना चाहिए। वहां ये मूल प्रकृतियों की