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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
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अपेक्षा नोकर्म कहे गये हैं । उत्तर प्रकृतियों की अपेक्षा नोकर्म का विचार करते हुए इष्ट अन्न-पान आदि को सातावेदनीय का अनिष्ठ अन्न-पान आदि को असातावेदनीय का नोकर्म कहा है। इसका भी यही तात्पर्य है कि इष्ट अन्न-पान आदि का संयोग होने पर सातावेदनीय की उदय - उदीरणा होती है और अनिष्ट अन्न-पान आदि का संयोग होने पर असातावेदनीय की उदय - उदीरणा होती है । इन बाह्य पदार्थ के संयोग-वियोग यथासम्भव उस कर्म के उदय - उदीरणा में निमित्त होते हैं, यह उक्त कथन का तात्पर्य है । यहां प्रकृति अनुयोगद्वारमें मुख्य रूप से नोकर्म की क्या प्रकृति है, इसका विचार हो रहा है। इसलिए किस कार्य का क्या नोकर्म है, यह न बतलाकर जो पदार्थ नोकर्म हो सकते हैं उनकी प्रकृति का निर्देश किया है ।
कर्मप्रकृति के ज्ञानावरण आदि आठ भेद हैं । इनका स्वरूप इनके नाम से ही परिज्ञात है । ज्ञानावरण - ज्ञान एक होकर भी बन्धविशेष के कारण उसके पांच भेद हैं, अत: सर्वत्र ज्ञानावरण के पांच भेद किये गये हैं । जो इन्द्रिय और नोइन्द्रिय के अभिमुख अर्थात् ग्रहणयोग्य नियमित विषय को जानता है वह आभिनिबोधिकज्ञान है । यह पांच इन्द्रियों और मन के निमित्त से अप्राप्त रूप बारह प्रकार के पदार्थो का अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणांरूप तथा प्राप्तरूप उन बारह प्रकार के पदार्थों का स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन्द्रियों के द्वारा मात्र अवग्रहरूप होता है; इसलिए इसके अनेक भेद हो जाते हैं। यथा- अवग्रह आदि के भेद से वह चार प्रकार का है, इन चार भेदों को पांच इन्द्रिय और मन इन छह से गुणा करने पर चौबीस प्रकार का है। इन चौबीस भेदों में व्यंजनावग्रह के चार भेद मिलाने पर अट्ठाईस प्रकार का है, और इनमें अवग्रह आदि चार सामान्य भेद मिलाने पर बत्तीस प्रकार का है । पुन: इन ४, २४, २८ और ३२ भेदों को छह प्रकार के पदार्थों से गुणा करने पर २४, १४४, १६८ और १९२ प्रकार का है तथा १२ प्रकार के पदार्थों से गुणा करने पर ४८, २२८, ३३६ और ३८४ प्रकार का है।
अवग्रह के भेदों का स्वरूपनिर्देश करते हुए वीरसेन स्वामी ने उनकी स्वतन्त्र व्याख्या प्रस्तुत की है । वे कहते हैं कि अप्राप्त अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह है और प्राप्त अर्थ का ग्रहण व्यंजनावग्रह हैं । इस आधार से उन्होंने स्पर्शन, रसना, घ्राण और श्रोत्र इन चार इन्द्रियों को प्राप्त और अप्राप्त दोनों प्रकार के अर्थ का ग्रहण करने वाला माना है । इस कथन की पुष्टि में उन्होंने अनेक हेतु भी दिये हैं ।
श्रोत्रेद्रिय के विषय का ऊहापोह करते हुए उन्होंने भाषा के स्वरूप पर भी प्रकाश डाला है। वे अक्षरगत भाषा के भाषा और कुभाषा ये दो भेद करके लिखते हैं कि काश्मीर