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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका आये हैं। फिर भी किस वृद्धि और हानि से यवमध्य का प्रारम्भ और अन्त होता है यह बतलाने के लिए यवमध्यप्ररूपणा की गई है। यद्यपि यवमध्य कालयवमध्य और जीवयवमध्य के भेद से दो प्रकार का होता है पर यहाँ पर कालयवमध्य का ही ग्रहण किया है, क्योंकि इसमें वृद्धियों और हानियों के काल की मुख्यता से ही इसकी रचना की गई है।
(११) पर्यवसान प्ररूपणा- अनंत गुणवृद्धि रूप काण्डक के ऊपर पांच वृद्धिरूप सब स्थान जाकर पुन: अनंतगुणवृद्धि रूप स्थान नहीं प्राप्त होता, यह बतलाना इस प्ररूपणा का कार्य है।
(१२) अल्पबहुत्वप्ररूपणा – इसके दो भेद हैं - अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा । अनन्तरोपनिधा अलपबहुत्व में अनत्तगुणावृद्धिस्थान सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातगुणवृद्धिसथान असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार आगे संख्यातगुणवृद्धिस्थान, संख्यातभागवृद्धिस्थान, असंख्यातभागवृद्धि स्थान और अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं, यह बतलाया गया है तथा परम्परोप निधा अल्पबहुत्व में अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे हैं, यह बतलाया गया है तथा परम्परोप निधा अल्पबहुत्व में अनन्तभागवृद्धिस्थान सबसे थोड़े हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धि स्थान असंख्यातगुणे हैं। तथा इनसे संख्यातभागवृद्धिस्थान संख्यातगुणे हैं आदि बतलाया गया है।
इस प्रकार अनुभागबन्धस्थान के आश्रय से यह प्ररूपणा समाप्त कर अन्त में वीरसेन स्वामी ने अनुभागसत्कर्म के आश्रय से यह सब विचार कर दूसरी चूलिका समाप्त की है।
तीसरी चूलिका में जीवसमुदाहार का विचार किया गया है । इसके ये आठ अनुयोगद्वार हैं - एक स्थान जीवप्रमाणानुगम, निरन्तरस्थान जीव प्रमाणानुगम , सान्तरस्थानजीवप्रमाणानुगम, नानाजीव कालप्रमाणानुगम, वृद्धिप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, यवमध्यप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा और अल्पबहुत्व ।
(१) एकस्थानजीवप्रमाणानुगम - एक स्थान में जघन्यरूप से जीव एक, दो या तीन होते हैं और उत्कृष्टरूप से आवलि के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं, यह बतलाना इस प्ररूपणा का कार्य है।
.(२) निरन्तस्थानजीवप्रमाणानुगम - इस प्ररूपणा में जीवों से सहित निरन्तर स्थान एक, दो या तीन से लेकर अधिक से अधिक आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं, यह बतलाया गया है।