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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
(२) स्थानप्ररूपणा - इस प्रकार पूर्वोक्त अन्तर को लिए हुए जो अभव्यों से अनन्तगुणे और सिद्धों के अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक उत्पन्न होते हैं उन सबका एक स्थान होता है । यहाँ पर एक जीव में एक साथ जो कर्मो का अनुभाग दिखाई देता है उसकी स्थान संज्ञा है । उसके दो भेद हैं - अनुभागबन्धस्थान और अनुभागसत्वस्थान । उनमें से जो अनुभाग बन्ध द्वारा निष्पन्न होता है उसकी तो अनुभागबन्धस्थान संज्ञा है ही। साथ ही पूर्वबद्ध अनुभाग का घात होने पर तत्काल बन्ध को प्राप्त हुए अनुभाग के समान जो अनुभाग प्राप्त होता है उसकी भी अनुभागबन्धस्थान संज्ञा है । किन्तु जो अनुभागस्थान घात को प्राप्त होकर तत्काल बन्ध को प्राप्त हुए अनुभाग के समान न होकर बन्ध को प्राप्त हुए अष्टांक और ऊर्वक के मध्य में अघस्तन ऊर्वक से अनन्तगुणा और उपरिम अष्टांक से अनन्तगुणा हीन होता है उसे अनुभागसत्कर्मस्थान कहते हैं। यदि इन प्राप्त हुए स्थानों को मिलाकर देखाजाय तो ये सब असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं। इस प्रकार स्थानप्ररूपणा में इन सब स्थानों का विचार किया जाता है।
(३) अन्तरप्ररूपणा – स्थानप्ररूपणा में कुल स्थान कितने होते हैं यह तो बतलाया है, किन्तु वहाँ उनमें परस्पर कितना अन्तर होता है इसका विचार नहीं किया गया है । इसलिए इस प्ररूपणा का अवतार हुआ है । इसमें बतलाया गया है कि एक स्थान से तदनन्तरवर्ती स्थान में अविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा सब जीवों से अनन्तगुणा अन्तर होता है । जो जघन्य स्थानान्तर है वह भी सब जीवों से अनन्तगुणा है, क्योंकि एक अनन्तभागरूप वृद्धिप्रक्षेप में सब जीवों से अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद उपलब्ध होते हैं। इस प्रकार इस प्ररूपणा में विस्तार के साथ अन्तर का विचार किया गया है।
(४) काण्डकप्ररूपणा -- कुल वृद्धियाँ छह हैं - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणावृद्धि और अनन्तगुणावृद्धि । इनमें से अनन्तभागवृद्धि काण्डकप्रमाण होने पर एक बार असंख्यातभागवृद्धि होती है । पुन: काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि होने पर दूसरी बार असंख्याभागवृद्धि होती है । इस प्रकार पुन:पुन: पूर्वोक्त क्रम से जब असंख्यातभागवृद्धि काण्डकप्रमाण हो लेती है तब एक बार संख्यातभागवृद्धि होती है । इस प्रकार अनन्तगुणवृद्धि के प्राप्त होने तक यही क्रम जानना चाहिए । यहाँ काण्ड से अङ्गुल का असंख्यातवाँ भाग लिया गया है । यहाँ एक स्थान में इन वृद्धियों का विचार करने पर वे किस प्रकार उपलब्ध होती है इसकी चरचा प्रस्तुत पुस्तक के पृष्ठ १३० में की ही है । उसके आधार से काण्डकप्ररूपणा की विस्तार से समझ लेना चाहिए।