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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४१७ उत्कृष्ट आदि पूर्वोक्त चार पदों के साथ सादि, अनादि, ध्रुव, अध्रुव, ओज, युग्म, ओम, विशिष्ट और नोमनोविशिष्ट इन अन्य नौ पदों को देशामर्षकभाव से सूचित कर इन तेरह पदों के परस्पर सन्निकर्ष की भी प्ररूपणा की है । मात्र ऐसा करते हुए वे कहाँ किस अपेक्षा से उत्कृष्ट आदि पद स्वीकार किये गये हैं इस दृष्टिकोण का पृथक्पृथक् रूप से उल्लेख करते गये हैं। इसके लिए प्रस्तुत पुस्तक का पृष्ठ ग्यारह का कोष्टक दृष्टव्य है।
स्वामित्व अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि आठ मूल प्रकृतियों के आश्रय से इन उत्कृष्ट आदि चार पदों की अपेक्षा स्वामी बतलाये गये हैं।
____ अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार के जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट ऐसे तीन भेद करके इनके उत्तर प्रकृतियों के आश्रय से चौसठ पदवाले उत्कृष्ठ और जघन्य अल्पबहुत्व का भी विचार किया गया है । यहाँ दो बातें उल्लेखनीय हैं। प्रथम तो यह कि इन दोनों प्रकार के चौंसठ पद वाले अल्पबहुत्व का निर्देश पहले क्रम से सूत्र गाथाओं में किया गया है और फिर उन्हीं को गद्यसूत्रों में दिखलाया गया है । द्वितीय यह कि वीरसेन स्वामी ने इन दोनों प्रकार के अल्पबहुत्वों से सूचित होने वाले स्वस्थान अल्पबहुत्व का निर्देश अपनी धवला टीका में अलग से किया है। - इसके आगे इसी वेदनाभाव विधान की क्रम से प्रथम, द्वितीय और तृतीय ये तीन चूलिकाएँ चालू होती हैं । जिस प्रकरण में विवक्षित अनुयोगद्वार में कहे गये विषय का अवलम्बन लेकर विशेष व्याख्यान किया जाता है उसे चूलिका कहते हैं । इसलिए चूलिका सर्वथा स्वतन्त्र प्रकरण न होकर विवक्षित अनुयोग द्वार का ही एक अङ्ग माना जाता है । ऐसी यहाँ क्रम से तीन चूलिकायें निर्दिष्ट हैं।
प्रथम चूलिका में गुणश्रेणिनिर्जरा किसके कितनी गुणी होती हैं और उसमें लगने वाले काल का क्या प्रमाण है, इसका विचार किया गया है । यहाँ गुणश्रेणिनिर्जरा के कुल स्थान ग्यारह बतलाये हैं । यथा-सम्यक्त्व की उत्पत्ति, श्रावक, विरत, अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाला, दर्शनमोहका क्षपक, चारित्रमोह का उपशामक, उपशान्तकषाय, क्षपक, क्षीणमोह, स्वस्थान जिन और योगनिरोध में प्रवृत्त हुए जिन । इन ग्यारह स्थानों में णश्रेणि निर्जरा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी होती है । किन्तु इसमें लगनेवाला काल उत्तरोत्तर संख्यातगुणा हीन जानना चाहिए । अर्थात् प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय गुणश्रेणि निर्जरा में जो अन्तर्मुहूर्त काल लगता है उससे श्रावक के होनेवाली गुणश्रेणि निर्जरा में संख्यातगुणा हीन अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । इस प्रकार आगे आगे हीन-हीन काल जानना चाहिए। तत्त्वार्थसूत्र के 'सम्यग्दृष्टिश्रावक' इत्यादि सूत्र की व्याख्या करते हुए सर्वार्थसिद्धि