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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
३५० समुद्रों से रुद्ध योजनों से संख्यात गुणे योजन आगे जाकर होती है । परन्तु पुस्तक ४, पृष्ठ १६८ पर कहा गया है कि स्वयंभूरमण समुद्र का विष्कंभ एक राजु के अर्ध प्रमाण से कुछ
अधिक है, तथा पृ. १९९ पर स्वयंभूरमण का क्षेत्रफल जगप्रतरका ८२ वां भाग बताया गया है, जिससे विदित होता है कि राजुका अन्त स्वयंभूरमण समुद्र पर ही हुआ है। इस विरोध का समाधान क्या है ?
(नेमीचंद रतनचंदजी, सहारनपुर) समाधान – भाग ३ पृ. ३६ पर धवलाकार ने स्वयं उक्त दोनों मतों पर विचार किया है जिससे यही प्रकट होता है कि उक्त विषय पर प्राचीन आचार्यों में मतभेद रहा है जिसके कारण कितनी ही मान्यताएं एक मत पर और कितनी ही दूसरे मत पर अवलम्बित हुई पायी जाती है । धवलकार ने अपनी समन्वयबुद्धि द्वारा जहां जिस मत के अनुसार विषय की संगति बैठती है वहां उसी मत का अवलम्बन लेकर विचार किया है धवलाकार के अनुसार एक मत तिलोयपवण्णत्ति सूत्र के आधार पर और दूसरा परिकर्म सूत्र पर अवलम्बित है। धवलाकार ने परिकर्म सूत्र के शब्दों की तो प्रथम मत के साथ किसी प्रकार संगति बैठा दी है, पर उनका जो अर्थ दूसरे आचार्यों ने किया है उसको उन्होंने केवल प्रकृत में व्याख्यानाभास कह कर टाल दिया है। पुस्तक ५, पृ.८
११. शंका – पल्योपम का असंख्यातवां भाग कितना समय है, वह मुहूर्त या अन्त मुहूर्त से कितना गुणा या अधिक है, एवं उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन से मिथ्यात्व को प्राप्त होकर पुन: ठीक कितने काल में फिर उपशमसम्यकत्व को प्राप्त कर सकता है ?
(हुकमचंद जैन, सलावा मेरठ) समाधान – पल्योपम से प्रकृत में अद्वापल्यका ही अभिप्राय है जिसका प्रमाण भाग ३ द्रव्यप्रमाण की प्रस्तावना पृ. ३५ पर बतलाया जा चुका है । तदनुसार पल्योपम का असंख्यातवां भाग मुहूर्त या अन्तमुहूर्त से असंख्यातगुणा सिद्ध होता है । इससे अधिक स्पष्ट या निश्चित रूप से उक्त प्रमाण न कहीं बतलाया गया और न छद्मस्थों द्वारा बतलाया ही जा सकता है । उपशमसम्यक्त्व से सासादन होकर पुन: उपशमसम्यक्त्व की प्राप्ति संख्यात वर्ष की आयु में संभव नहीं बतलाई । किन्तु असंख्यात वर्ष की आयु में संभव बतलायी गई है । (देखो गत्यागति चूलिका सूत्र ६६-७३ की टीका व विशेषार्थ पृ. ४४४४४५) । इस पर से इतना ही कहा जा सकता है कि पल्योपम का असंख्यातवां भाग भी असंख्यात वर्ष प्रमाण होता है।