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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका
४१० (३) अल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में आठों कर्मो की उक्त वेदनाओं के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा जघन्यपदविषयक, उत्कृष्टपदविषयक व जघन्य-उत्कृष्टपदविषयक, इन 3 अनुयोगद्वारों के द्वारा की गयी है । प्रसंग पाकर यहाँ (सूत्र ३०-९९ में) मूलग्रन्थकर्ता ने सब जीवों में अवगाहनादण्डककी भी प्ररूपणा कर दी है। ६ वेदनाकालविधान
इस अनुयोगद्वार में पहिले नामकाल, स्थापनाकाल, द्रव्यकाल, समाचारकाल, अद्धाकाल, प्रमाणकाल और भावकाल, इस प्रकार काल के ७ भेदों का निर्देश कर इनके और भी उत्तरभेदों को बतलाते हुए तद्व्यतिरिक्त नोआगमद्रव्यकाल के प्रधान और अप्रधान रूप से २ भेद बतलाये है । इनमें जो काल शेष पांच द्रव्यों के परिणमन में हेतुभूत हैं वह प्रधानकाल कहा गया है । यह प्रधानकाल कालाणु स्वरूप होकर संख्या में लोकाकाशप्रदेशों के बराबर, रत्नराशि के समान प्रदेश प्रचय से रहित, अमूर्त एवं अनादि-निधन है । अप्रधानकाल सचित्त, अचित्त और मिश्र के भेद से तीन प्रकार का बतलाया है। इनमें दंशकाल (डांसों का समय) व मशककाल (मच्छरों का समय) आदि को सचित्तकाल, धूलिकाल, कर्दमकाल, वर्षाकाल, शीतकाल व उष्णकाल आदि को अचित्तकाल तथा सदंश शीतकाल आदि को मिश्रकाल से नामांकित किया गया है ।
समाचारकाल लौकिक और लोकोत्तर के भेद से दो प्रकार हैं । वन्दनाकाल, नियमकाल, स्वाध्यायकाल व ध्यानकाल आदि रूप लोकोत्तर समाचारकाल तथा कर्षणकाल (खेत जोतने का समय) लुननकाल व वपनकाल (वोने का समय) आदि रूप लौकिक समाचारकाल कहा जाता है । वर्तमान, अतीत व अनागत रूपकाल अद्धाकाल तथा पल्योपम व सागरोपम आदि रूप काल प्रमाणकाल नाम से प्रसिद्ध हैं।
वेदनाद्रव्यविधान और क्षेत्रविधान के समान इस अनुयोगद्वार में भी पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व ये ही तीन अनुयोग द्वार हैं।
(१) पदमीमांसा - अनुयोगद्वार में ज्ञानावरणादि कर्मों की वेदनाओं के उत्कृष्टअनुत्कृष्ट आदि उन्हीं १३ पदों की प्ररूपणा काल की अपेखा ठीक उसी प्रकार से की गयी है जैसे कि द्रव्य विधान में द्रव्य की अपेक्षा से और क्षेत्रविधान में क्षेत्र की अपेक्षा से वह की गयी है । यहाँ उससे कोई उल्लेखनीय विशेषता नहीं है।
(२) स्वामित्व - पिछले उन दोनों अनुयोगद्वारों के समान यहाँ भी इस अनुयोगद्वार को उत्कृष्ट पद विषयक और अनुत्कृष्ट पदविषयक इन्हीं दो भेदों में विभक्त