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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका असंयत संयतासंयत व संयत, इन सभी गुणस्थानों में क्षायिक, वेदक और उपशम सम्यक्त्व स्वीकार किया गया है । यथा -
___ मणुसा असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजद-संजदट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्टी वेदयसम्माइट्टी उवसम सम्माइट्ठी ॥ एवं मणुसपज्जत्त-मणुसणीसु ॥ १६४-१६५ ।
इन सूत्रों के सद्भाव में स्वयं पुष्पदन्तकृत सत्प्ररूपणा में ही मनुष्यनी के संयत गुणस्थान व तीनों सम्यक्त्वों का सद्भाव स्वीकार किया है ।
इन सब प्रमाणों व युक्तियों से स्पष्ट है कि सत्प्ररूपणा के सूत्र ९३ में संयत पद का ग्रहण करना अनिवार्य है। यदि उसका,ग्रहण नहीं किया जाय तो शास्त्र में बड़ी विषमता और विरोध उत्पन्न हो जाता है। इस परिस्थिति में यदि उसी सूत्र के आधार पर स्त्रियों के केवल पांच ही गुणस्थानों की मान्यता स्थिर की जाती है तो कहना पड़ेगा कि यह मान्यता एक स्खलित और त्रुटित पाठ के आधार से होने के कारण भ्रान्त और अशुद्ध है।
मूडविद्री की ताड़पत्रीय प्रतियों में जीवट्ठाण की सत्प्ररूपणा के सूत्र ९३ में 'संजद' पाठ है।
___ऊ पर बतलाया जा चुका है कि किस प्रकार उपलब्ध प्रतियों में उक्त सूत्र के अन्तर्गत 'संजद' पाठ न होने पर भी सम्पादकों ने उसे ग्रहण करना आवश्यक समझा और उस पर उत्तरोत्तर विचार करने पर भी उसके विना अर्थ की संगति बैठाना असम्भव अनुभव किया । किन्तु कुछ विद्वान इस कल्पना पर बेहद रूष्ट हो रहे हैं और लेखों, शास्त्रार्थों व चर्चाओं में नाना प्रकार के आक्षेप कर रहे हैं। प्रथम भाग के एक सहयोगी सम्पादक पं. हीरालालजी शास्त्री ने तो प्रकट भी कर दिया है कि उस पाठ के रखने में उनकी कोई जिम्मेदारी नहीं है । दसरे सहयोगी पं. फूलचन्द्रजी शास्त्री ने उसके सम्बन्ध में कुछ भी न कहकर मौन धारण कर लिया है । इस कारण समालोचकों ने उसके सम्बन्ध में कुछ भी न कहकर मौन धारण कर लिया है । इस कारण समालोचकों ने प्रधान सम्पादक को ही अपने क्रोध का एक मात्र लक्ष्य बना रखा है। इस परिस्थिति को देखकर प्रधान सम्पादक ने मूडविद्री की ताड़पत्रीय प्रतियों से उस सूत्र के पुन: सावधानी से मिलान कराने का प्रयत्न किया । पुस्तक ३ के 'प्राक्कथन' व 'चित्र-परिचय' के पढ़ने से पाठकों को सुविदित हो ही चुका है कि मूडविदी में धवलसिद्धान्त की एक ही नहीं तीन ताड़पत्रीय प्रतियां हैं, यद्यपि