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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका इनमें की दो में ताड़पत्र पूरे पूरे न होने से वे त्रुटित हैं । इन तीनों प्रतियों का सावधानी से अवलोकन करके श्रीयुत् पं. लोकनाथ जी शास्त्री अपने ता. २४.५.४५ के पत्र द्वारा सूचित करते हैं कि -
"जीवट्ठाण भाग १ पृष्ठ नं. ३३१ में सूत्र ताड़पत्रीय मूलप्रतियों में इस प्रकार है -
"तत्रैव शेषगुणस्थानविषयारेकापोहनार्थमाह - सम्मामिच्छाइरिट्ठअसंजदसम्मानइट्टि संजदासंजद संजदट्ठाणे णियमा पजत्तियाओं।'
टीका वही है जो मुद्रित पुस्तक में है । धवला की दो ताड़पत्रीय प्रतियों में सूत्र इसी प्रकार 'संजद' पद से युक्त है । तीसरी प्रति में ताड़पत्र ही नहीं है । पहले संशोधनमुकाबिला करके भेजते समय भी लिखकर भेजा था । परन्तु रहा कैसा, सो मालूम नहीं पड़ता, सो जानियेगा।"
ताड़पत्रीय प्रतियों के इस मिलान पर से पाठक समझ सकेंगे कि षट्खंडागम का पाठ संशोधन कितनी सावधानी और चिन्तन के साथ किया गया है। तीसरे भाग की प्रस्तावना में हम लिख ही चुके थे कि उस भाग में हमने जिन १९ पाठों की कल्पना की थी उनमें से १२ पाठ जैसे के तैसे ताड़पत्रीय प्रतियों में पाये गये और शेष पाठ उनमें न पाये जाने पर भी शैली और अर्थ की दृष्टि से उनका वहां ग्रहण किया जाना अनिवार्य है । अब उक्त सूत्र में भी 'संजद' पाठ मिल जाने से मर्मज्ञ पाठकों को संतोष होगा और समालोचक विचार कर देखेंगे कि उनके आक्षेपादि कहां तक न्यायसंगत थे । जिनके पास प्रतियां हों उन्हें उक्त सूत्र में संजद पाठ सम्मिलित करके अपनी प्रति शुद्ध कर लेना चाहिये ।
विषय-परिचय (पु.७) पूर्व प्रकाशित छह पुस्तक में षट्खंडागम का प्रथम खंड 'जीवट्ठाण' प्रकट हो चुका है । प्रस्तुत पुस्तक में दूसरा खंड 'खुद्दाबंध' पूरा समाविष्ट है । इस खंड का विषय उसके नाम से ही सूचित हो जाता है कि इसमें क्षुद्र अर्थात् संक्षिप्त रूप से बंध अर्थात् कर्मबन्ध का प्रतिपादन किया गया है । पाठकों को इस बृहत्काय ग्रंथ में बन्ध का विवरण देखकर स्वभावत: यह प्रश्न उत्पन्न हो सकता है कि इसे क्षुद्र व संक्षिप्त विवरण क्यों कहा? . किन्तु संक्षिप्त और विस्तृत आपेक्षिक संज्ञाएं हैं । भूतबलि आचार्य ने प्रस्तुत खंड में बन्धक अनुयोग का व्याख्यान केवल १५८९ सूत्रों में किया है जब कि उन्होंने बंधविधान का