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षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका १. एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व
इस अधिकार में ९१ सूत्र हैं जिनमें बतलाया गया है कि मार्गणाओं सम्बन्धी गुण व पर्याय जीव के कौन से भावों से प्रकट होते हैं। इनमें सिद्धगति व तत्सम्बन्धी अकायत्व आदि गुण, केवलज्ञान, केवलदर्शन व अलेश्यत्व तो क्षायिक लब्धि से उत्पन्न होते हैं । एकेन्द्रिय आदि पांचों जातियां, मन वचन काय योग, मति, श्रुत अवधि और मन: पर्यय ज्ञान, परिहारशुद्धि संयम, चक्षु, अचक्षु व अवधि दर्शन, सम्यग्मिथ्यात्व और संज्ञित्व ये क्षयोपशम लब्धिजन्य हैं। अपगतवेद, अकषाय, सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यात संयम, ये औपशमिक तथा क्षायिक लब्धि से प्रकट होते हैं । सामाजिक व छेदोपस्थापन संयम और सम्यग्दर्शन औपशमिक, क्षायिक व क्षायोपशमिक लब्धि से प्राप्त होते हैं । तथा भव्यत्व, अभव्यत्व एवं सासादनसम्यक्त्व, ये पारिणामिक भाव हैं । शेष गति आदि समस्त मार्गणान्तर्गत जीवपर्याय अपने अपने कर्मों के व विरोधक कर्मों के उदय से उत्पन्न होते हैं। सूत्र ११ की टीका में धवलाकार ने एक शंका के आधार से जो नाम कर्म की प्रकृतियों के उदयस्थानों का वर्णन किया है वह उपयोगी है । २. एक जीवकी अपेक्षा काल
___ इस अनुयोग द्वार में २१६ सूत्र हैं जिनमें प्रत्येक गति आदि मार्गणा में जीव की जघन्य और उत्कृष्ट कालस्थिति का निरूपण किया गया है । जीवस्थान में जो काल की प्ररूपणा की गई है वह गुणस्थानों की अपेक्षा है, किन्तु यहां गुणस्थान का विचार छोड़कर मार्गणा की ही अपेक्षा काल बतलाया गया है यही इन दोनों में विशेषता है । ३. एक जीव की अपेक्षा अन्तर
इस अनुयोग द्वार के १५१ सूत्रों में यह प्रतिपादन किया गया है कि एक जीव का गति आदि मार्गणाओं के प्रत्येक अवान्तर भेद से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अर्थात् विहरकाल कितने समय का होता है । ४. नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचय
इस अनुयोगद्वार में केवल २३ सूत्र हैं । भंग अर्थात् प्रभेद और विचय अर्थात् विचारणा । अतएव प्रस्तुत अधिकार में यह निरूपण किया गया है कि भिन्न भिन्न मार्गणाओं में जीव नियम से रहते हैं या कमी रहते हैं और कभी नहीं भी रहते हैं। जैसे नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव इन चारों गतियों में जीव सदैव नियम से रहते ही हैं, किन्तु मनुष्य अपर्याप्त