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विषय-परिचय (पु.८) इस खण्ड का नाम बन्धस्वामित्व-विचय है, जिसका अर्थ है बन्ध के स्वामित्व का विचय अर्थात् विचारणा, मीमांसा या परीक्षा । तदनुसार यहां यह विवेचन किया गया है कि कौन सा कर्मबन्ध किस किस गुणस्थान में व मार्गणास्थान में सम्भव है । इस खण्ड की उत्पत्ति इस प्रकार बतलाई गई है -
कृति आदि चौबीस अनुयोगद्वारों में छठवें अनुयोगद्वार का नाम बन्धन है । बन्धन के चार भेद हैं - बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान । बन्धविधान चार प्रकार का है - प्रकृति, स्थिति, अनुभाव और प्रदेश । इनमें प्रकृतिबन्ध दो प्रकार का है - मूलप्रकृतिबन्ध
और उत्तर प्रकृतिबन्ध । सत्प्ररूपणा पृष्ठ १२७ के अनुसार उत्तर प्रकृतिबन्ध भी दो प्रकार का है, एकैकोत्तरप्रकृतिबन्ध और अव्वोगाढउत्तरप्रकृतिबन्ध । एकैकोत्तरप्रकृतिबन्ध के समुत्कीर्तनादि चौबीस अनुयोगद्वार हैं जिनमें बारहवां अनुयोगद्वार बन्धस्वामित्व-विचय है।
इस खण्ड में ३२४ सूत्र हैं । प्रथम ४२ सूत्रों में ओघ अर्थात् केवल गुणस्थानानुसार प्ररूपण है, और शेष सूत्रों में आदेश अर्थात् मार्गणानुसार गुणस्थानों का प्ररूपण किया गया है। सूत्रों में प्रश्नोत्तर क्रम से केवल यह बतलाया गया है कि कौन-कौन प्रकृतियां किनकिन गुणस्थानों में बन्ध को प्राप्त होती हैं । किन्तु धवलाकार ने सूत्रों को देशामर्शक मानकर बन्धव्युच्छेद आदि सम्बन्धी तेवीस प्रश्न और उठाये हैं और उनका समाधान करके बन्धोदयव्युच्छेद, स्वोदय-परोदय, सान्तर-निरन्तर, सप्रत्यय-अप्रत्यय, गति-संयोग व गतिस्वामित्व, बन्धाध्वान, बन्ध-व्युच्छित्तिस्थान, सादि-अनादि व ध्रुव-अध्रुव बन्धों की व्यवस्था का स्पष्टीकरण कर दिया है, जिससे विषय सर्वांगपूर्ण प्ररूपित हो गया है । इस प्ररूपणा की कुछ विशेष व्यवस्थायें इस प्रकार हैं :
__सान्तरबन्धी - एक समय बंधकर द्वितीय समय में जिनका बन्ध विश्रान्त हो जाता है वे सान्तरबन्धी प्रकृतियां हैं । वे ३४ हैं - असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, एकेन्द्रियादि ४ जाति, समचतुरस्रसंस्थान को छोड़ शेष ५ संस्थान, वज्रर्षभ्वनाराच-संहनन को छोड़ शेष ५ संहनन, नरकगत्यानुपूर्वी, आताप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारणशरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय और अयशकीर्ति ।